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________________ 04 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन अवगत कराया। सम्राट अकबर जैनमुनि के फकीरी आचरण से एवं अंहिसा की उत्कृष्ट भावना से अत्यन्त प्रभावित हुआ। सम्राट अकबर ने फलस्वरुप जैन पर्व पर्युषण के आठ दिनों में कत्लखाने बंद करने का आदेश दिया। उन्होंने इन आठ दिनों में चार दिन अपनी ओर से मिलाकर बारह दिनों तक पशुवध एवं कत्लखानों के पूर्ण निषेध का फरमान जारी किया। यही नहीं स्वयं अकवर ने वर्ष में छ:माह का मांसाहार सेवन का पूर्ण त्याग कर दिया। कहते हैं कि हीरविजयसूरि ने मेवाड़ में राणा प्रताप को भी प्रतिबोध दिया तथा महाराणा प्रताप जैन धर्म के प्रति पूर्ण आदरभाव रखते थे। जैनाचार्य हीरविजयसूरि एवं उनके शिष्यों के प्रति महाराणा प्रताप की अत्यन्त श्रद्धा थी। उन्होंने विनति पत्र लिख कर हीरविजयसूरि को मेवाड़ पधारने का निवेदन किया था। श्री हीरविजयसूरि ने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्ति आदि की रचना की थी। ये आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। इनमें वाणी की चमत्कारिक शक्ति थी तथा विद्वता का ओज था। साधु जीवन की मर्यादाओं का दृढ़ता से पालन करते थे। सम्राट अकबर से इनका निकट सम्पर्क लगभग तीन वर्षों तक रहा। अकबर के मंत्री अबुल फजल ने इनके बारे में कहा था - “जहाँपनाह मैंने बड़े-बड़े विद्वान् देखे हैं। परन्तु सूरि जी जैसा विद्वान् एवं सरल नहीं देखा। सूरिजी की सुदीर्घ शिष्य परम्परा रही है। जिनमें विजयसेनसूरि 'सूरि' पद पर आसीन हुए तथा कीर्तिविजय जी वाचक की उपाधि से अंलकृत हुए। विक्रम संवत् १६५२ में सिद्धाचल की यात्रा के पश्चात् उनका स्वर्गगमन हो गया। हीरविजयसूरि जी को 'जगतगुरु' विशेषण से विभूषित किया जाता है। श्री हीरविजयसूरि को लक्ष्य कर अनेक रचनाओं का ग्रथन हुआ है, जिनमें श्री हेमविजय गणि विरचित एवं श्री जिनशासन आराधना ट्रस्ट मुम्बई से विक्रम संवत् २०४५ में प्रकाशित 'श्री विजयप्रशस्तिमहाकाव्यम्' विशेष उल्लेखनीय है। हीर सौभाग्य, जगद्गुरु काव्य एवं हीरविजयसूरि रास से भी हीरविजयसूरि के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त होती है। आधुनिक युग में हीरविजयसूरि पर बालचित्र कथा का प्रकाशन प्राकृत भारती अकादमी जयपुर एवं दिवाकर प्रकाशन आगरा से संयुक्त रुप से हुआ है। श्री विजयसेनसूरि श्री हीरविजयसूरि के पश्चात् आचार्य बने। इनका जन्म फाल्गुनी पूर्णिमा विक्रम संवत् १६०४ को नारदपुर (मेवाड़) में हुआ। इनके पिता का नाम कमा सेठ और कोडीमदेवी था। इन्होंने विक्रमसंवत् १६१३ में ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी को सूरत नगर में दीक्षा अंगीकार की। इनके भी दीक्षा प्रदाता विजयदानसूरी थे। विक्रम संवत् १६२६ की फाल्गुन शुक्ला दशमी को स्तम्भन तीर्थ में इन्हें पण्डित (उपाध्याय) पद से सुशोभित किया गया। इसके दो वर्ष पश्चात् अहमदाबाद में फाल्गुन शुक्ला
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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