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________________ क्षेत्रलोक 283 अर्थात् यह लोक उत्पत्ति, विनाश और स्थिति रूप त्रिगुणात्मक है। यह षड्द्रव्यों से परिपूर्ण है। अपने मस्तक पर सिद्ध पुरुष विराजमान होने से हर्ष में आकर मानो नृत्य करने के लिए चरण फैलाए किसी खड़े पुरुष के समान यह लोक है। इस प्रकार इन उपमाओं से लोक के स्वरूप एवं उसके प्रकारों का बोध होता है। कटि पर रखे हाथ वाले पुरुष के आकार वाले लोक में कटि के नीचे का भाग अधोलोक, कटि के ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक और दोनों के मध्य का भाग मध्यलोक है। लोकप्रकाशकार के अनुसार अधोलोक की आकृति स्वभावतः कुम्भ के समान, ऊर्ध्वलोक की आकृति खड़े किए मृदंग के समान और मध्यलोक झालर के आकार के समान है। कुछ जैन दार्शनिक अधोलोक, ऊर्ध्वलोक एवं मध्यलोक की आकृति क्रमशः वेत्रासन, खड़ा किया मृदंग एवं खड़े किए अर्धमृदंग के समान मानते हैं। (द्रष्टव्य पृष्ठ सं. २८४) सम्पूर्ण लोक की ऊँचाई १४ रज्जु प्रमाण होती है। अधोलोक की ऊँचाई सात रज्जु, मध्यलोक की ऊँचाई एक लाख योजन और ऊर्ध्वलाक की ऊँचाई एक लाख योजन कम सात रज्जु है। तीनों लोकों में से अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और तमस्तमप्रभा ये सात पृथ्वियाँ एक-एक रज्जु के अन्तराल से होती है। अर्थात् सात नरक सात रज्जु प्रमाण हैं। रत्नप्रभा नारकी के ऊपरी तल से प्रारम्भ करके प्रथम दो देवलोक तक आठवां, तीसरे से चौथे देवलोक तक नौवां, पाँचवें से छठे देवलोक तक दसवां, सातवें से आठवें तक ग्यारहवां, नौवें से लेकर बारहवें तक बारहवां, अनुक्रम से अन्तिम ग्रैवेयक तक तेरहवां और लोकान्त तक चौदहवां रज्जु पूर्ण होता है।" इस तरह सात नरकों के सात और उसके ऊपर सात रज्जु मिलाकर लोक की ऊँचाई कुल चौदह रज्जु प्रमाण पूरी होती है। उत्तर-दक्षिण भाग मे लोक का आयाम सर्वत्र सात रज्जू (रज्जु) है और पूर्व-पश्चिम में लोक का विस्तार अधोलोक के नीचे सात रज्जू, मध्यलोक में एक रज्जू, ब्रह्मलोक पर पाँच और लोक के अन्त में एक रज्जू प्रमाण है।" (द्रष्टव्य पृष्ठ सं.२८५) लोक में 14रज्जुओंकाविभाग मध्यलोक से अधोलोक की ओर सात रज्जु का विभाग किस प्रकार है, इसका कथन इस प्रकार प्राप्त होता है- मध्यलोक के अधोभाग से प्रारम्भ होता हुआ पहला रज्जू शर्कराप्रभा पृथ्वी के अधोभाग में समाप्त होता है। इससे आगे दूसरा रज्जू प्रारम्भ होकर बालुकाप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है तथा तीसरा रज्जू पंकप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है। इसके अनन्तर चौथा
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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