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________________ 260 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन पुनः सूक्ष्म पृथ्वीकायत्व आदि प्राप्त करता है, इस अपेक्षा से सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि जीवों का उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल होता है।" सूक्ष्म वनस्पतिकाय का जघन्य अन्तर सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि के समान अन्तर्मुहूर्त होता है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात कालचक्र का होता है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव सूक्ष्म पृथ्वीकायत्व आदि जन्म प्राप्त करता है एवं पुनः वनस्पतिकायत्व धारण करता है। पृथ्वीकायिकादि जीवों का काल असंख्यात ही होता है अतः वनस्पतिकाय का उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल असम्भव है इसलिए इसका उत्कृष्ट काल असंख्यात ही है। बादर एकेन्द्रिय सूक्ष्म जीवों की जो कायस्थिति होती है वही बादर जीवों का अन्तर होता है। सभी बादर एकेन्द्रिय जीवों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है तथा बादर निगोद को छोड़कर शेष सभी का उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल होता है। बादर पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक तथा प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों का उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल के बराबर अनन्तकाल है क्योंकि ये जीव निगोद में उत्पन्न होकर अनन्त काल व्यतीत कर पुनः बादरत्व ग्रहण करते हैं। बादर निगोद का उत्कृष्ट अन्तर असंख्यातकाल है अर्थात् पृथ्वीकायिकादि जीवों की कायस्थिति असंख्यात काल है, अतः निगोदिया जीव असंख्यात काल पृथ्वीकायादि में रहकर पुनः निगोद में उत्पन्न होता है। ' विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय १०६ विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट कार्यस्थिति अर्थात् अनन्तकाल भोगकर पुनः तिर्यचत्व और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जन्म धारण करते हैं। अतः इनका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है तथा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है।' जीवाजीवाभिगम सूत्र में तिर्यक्योनिकों का उत्कृष्ट अन्तर साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ सागरोपम ) कहा गया है 990 “तिरिक्खजोणियाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं ।”” इसी प्रकार मनुष्य - मानुषी””, देव - देवी"" तथा नरक" इन सभी जीवों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल वनस्पतिकाल यावत् होता है। चक्रवर्ती के रूप में मनुष्य का जघन्य अन्तर एक सागरोपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गल परावर्तन होता है। " छत्तीसवां भवसंवेध द्वार : नरकादि में भवों की संख्या भव+सम् + वेध के योग से निष्पन्न भवसंवेध शब्द का तात्पर्य किसी भी जीव के वर्तमान जन्म और पर जन्म अथवा पूर्वजन्म के आधार पर उसके जघन्य (कम से कम) और उत्कृष्ट
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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