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________________ 202 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन के राजवार्तिक, विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक आदि दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं में इस सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन हुआ है। ___ ज्ञानादि गुणों की अपेक्षा से जीवों की असंख्य प्रकार की विभिन्नताओं को जैन दार्शनिकों ने एक-एक वर्ग में विभाजित करके गुणस्थान नामक चौदह भेदों में व्यवस्थापित किया है। चौदह गुणस्थानों के नाम इस प्रकार हैं ____मित्थे सासणमीसे अविरय देसे पमत्त अपमत्ते। ___ नियट्टी अनियट्टी सुहुमुवसमखीण संजोग अजोगिगुणा।। चौदह गुणस्थान हैं- १. मिथ्यात्व २. सास्वादन ३. मिश्र ४. अविरत सम्यग्दृष्टि ५. देशविरत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. निवृत्त बादर ६. अनिवृत्त बादर १०. सूक्ष्म संपराय ११. उपशांत मोह १२. क्षीण मोह १३. सयोगी केवली १४. अयोगी केवली। चौदह गुणस्थानों में प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक का क्रम दर्शन की अवस्थाओं को प्रकट करता है, जबकि पाँच से बारहवें गुणस्थान तक का विकासक्रम सम्यक्चारित्र से सम्बन्धित है। तेरहवां एवं चौदहवां गुणस्थान आध्यात्मिक पूर्णता का द्योतक है। दूसरा और तीसरा गुणस्थान मात्र चतुर्थगुणस्थान से प्रथम गुणस्थान की ओर होने वाले पतन को सूचित करता है। चौदह गुणस्थानों की कुछ अन्य विशेषताएँ १. पहला, दूसरा और चौथा गुणस्थान मृत्यु के अनन्तर परजन्म में भी जीव के साथ चलता है, जबकि मिश्र और देशविरति से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान को जीव इस लोक में ही छोड़कर परजन्म ग्रहण करते हैं।२२८ २. तीसरे, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में जीव मृत्यु प्राप्त नहीं करता है तथा शेष ग्यारह गुणस्थानों में रहकर जीव मृत्यु प्राप्त कर सकता है। २६ ३. ग्यारहवें गुणस्थान में सबसे अल्प जीव होते हैं। यहाँ एक समय में उत्कृष्ट चौपन जीव होते __ हैं। बारहवें गुणस्थान में संख्यात गुना जीव होते हैं। क्षपक श्रेणी की अपेक्षा वे एक समय में एक सौ आठ होते हैं और पूर्व प्रतिपन्न पृथक्त्व सौ पाये जाते हैं। इनसे अधिक आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानक में जीव होते हैं। इन गुणस्थानों में दोनों श्रेणियों के मिलाकर उत्कृष्ट एक सौ बहत्तर जीव एक समय में होते हैं। पाँचवें, दूसरे, तीसरे और चौथे गुणस्थान में अनुक्रम से असंख्य-असंख्य गुणा जीव होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में अनन्त गुना और इससे अनन्त गुना अधिक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में जीव होते हैं।२५० ४. प्रथम गुणस्थान का स्थिति काल अनादि सांत, सादि सांत और अनादि अनन्त है।" दूसरे
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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