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________________ 196 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन है तब वह वक्रगति कहलाती है। ऋजुगति मात्र एक समय की होती है अर्थात् एक समय में ही जीव अन्य स्थान पर पहुँच जाता है और परजन्म सम्बन्धित आयुष्य और आहार भोगता है। इस गति में आयुष्य और आहार व्यवहार नय एवं निश्चय नय की अपेक्षा से समान होते हैं। जबकि वक्रगति में व्यवहार नय से दूसरे समय में जीव की आयुष्य उदय में आती है और वह जीव दूसरे, तीसरे या चौथे समय में आहार ग्रहण करता है। निश्चय नय की अपेक्षा से वक्रगति का जीव भवान्त में पूर्वजन्म के सम्मुख होता है और पूर्वजन्म सम्बन्धित संघात और परिशाट (पूर्वजन्म का ग्रहण और परजन्म का त्याग) करता है। मोड़ के आधार पर वक्रगति के चार भेद किए गए हैं- एक वक्र, द्विवक्र, तीन वक्र और चार वक्र। इन चारों में क्रमशः दो, तीन, चार और पाँच समय लगते हैं।२०० स्थावर जीव की अपेक्षा से पाँच समय का कथन किया गया है अन्यथा शेष सभी जीवों को चार समय पर्याप्त है।" पाँचवें अंग 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' सूत्र में वक्र गति के भेदों के भिन्न नामों का उल्लेख मिलता है। जो इस प्रकार है- एकतोवक्रा, उभयतोवक्रा, एकतःखा और उभयतःखा।२०२ एकवक्र- जब जीव ऊर्ध्वलोक की पूर्व दिशा से अधोलोक की पश्चिम दिशा में गमन करता है तब वक्रगति एकवक्र कहलाती है और यह गति दो समय की होती है। इस गति में जीव समश्रेणि में गमन कर प्रथम समय में सीधा अधोलोक में पहुँचता है और वहाँ से दूसरे समय में तिरछे अपने उत्पत्ति प्रदेश में पहुँचता है। २०३ द्विवक्र- आग्नेय दिशा कोण के ऊर्ध्वप्रदेश से यदि कोई जीव अधोदिशा के वायव्य कोण में जाता है तो वह गति द्विवक्र होती है। इस गति में जीव को तीन समय लगते हैं। प्रथम समय में जीव आग्नेय कोण से सप्तश्रेणी करके ऊर्ध्वदिशा में जाता है। दूसरे समय में वहाँ से तिरछा होकर उत्तर-पश्चिम कोण अर्थात् वायव्य दिशा की ओर जाता है। तदनन्तर तीसरे समय में वायव्यी दिशा के नीचे की ओर जाता है। २०४ त्रस जीवों की वक्र गति अधिकाधिक तीन समय की होती है और स्थावर जीवों की चार अथवा पाँच समय की भी होती है। २०५ तीन वक्र- इस गति वाला जीव चार समय में गन्तव्य स्थान पर पहुँचता है। प्रथम समय में जीव त्रसनाड़ी के बाहर स्थित अधोलोक की विदिशा के किसी कोने में से दिशा में जाता है, दूसरे समय में त्रसनाड़ी के अन्दर प्रवेश करता है, तीसरे समय में ऊर्ध्वगति करता है और चौथे समय में पुनः त्रसनाड़ी से बाहर निकल कर दिशा में स्थित (विदिशा के कोने में नहीं) अपने निश्चित स्थान का आश्रय ग्रहण करता है। २०६
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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