SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 192 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन अल्पबहुत्व __अल्पबहुत्व की दृष्टि से ज्ञानी जीव अज्ञानियों की अपेक्षा कम हैं। ज्ञानी जीवों में मनःपर्यवज्ञानी सबसे कम और अवधिज्ञानी उनसे असंख्यात गुणे अधिक हैं। अवधिज्ञानी से मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेष अधिक हैं। केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं। अज्ञानियों में विभंगज्ञानी अल्प हैं तथा उनसे मतिअज्ञानी व श्रुताज्ञानी अनन्तगुणे अधिक हैं।" स्थिति काल ज्ञान की स्थिति द्विविध है- सादि अनन्त और सादि सान्त। केवलज्ञान सादि अनन्त और शेष चार सादि सान्त है। प्रथम दो ज्ञान की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरोपम है।'' अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान की जघन्य स्थिति एक समय और उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः ६६ सागरोपम एवं पूर्वकोटि से कुछ कम है।६२ ___मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान अनादि अनन्त, अनादि सान्त और सादि सान्त तीन प्रकार के होते हैं। विभंग ज्ञान की जघन्य स्थिति एक समय तथा उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तैंतीस सागरोपम है।६३ सत्ताइसवांद्वार : दर्शन-निरूपण 'दृश्' (दृश+ल्युट्) धातु से बना 'दर्शन' शब्द यहाँ 'जानना' अर्थ का द्योतक है। यहाँ यह धातु 'आलोक' अर्थ की वाचक नहीं है। सर्वार्थसिद्धिकार ने दर्शन शब्द की कर्तृ, कर्म और भाववाच्य परक व्युत्पत्ति की है। सामान्य विशेषात्मक वस्तु के विकल्प से पूर्व स्वरूप मात्र का सामान्य ग्रहण 'दर्शन' कहलाता है। दर्शन भी जीव का एक लक्षण है जो सभी जीवों में पाया जाता है। यह निर्विकल्पक होता है तथा ज्ञान सविकल्पका यह अनाकार होता है जबकि ज्ञान को साकार माना गया है। उपचार नय से सामान्य ग्रहण को दर्शन कहा जाता है जबकि विशुद्ध नय की अपेक्षा से दर्शन पर्याय से परिणत आत्मा ही दर्शन है अर्थात् अनाकारक ज्ञान। संक्षेप में कह सकते हैं कि सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ को देखने पर निर्विकल्पक और निश्चयात्मक सत्तामात्र का ग्रहण करना दर्शन है। दर्शन और अवग्रहज्ञान में भिन्नता- विषय और विषयी का सन्निपात होने पर इन्द्रिय से उत्पन्न 'यह कुछ है' ऐसा निर्विकल्प आलोकन 'दर्शन' है और तदनन्तर दूसरे क्षण में 'यह रूप है' 'यह पुरुष है' इत्यादि विशेषांश का सविकल्प ज्ञान ‘अवग्रह ज्ञान' होता है।६७ जीवों को दर्शन चार प्रकार से होता है। वह इस प्रकार है
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy