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________________ 188 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन का भी उपाध्याय विनयविजय ने उल्लेख किया है।३७ मति और श्रुत में भेद- मति और श्रुत इन दोनों में यह भेद है कि मतिज्ञान में प्रत्यक्ष के विषय की उपस्थिति आवश्यक है, किन्तु 'श्रुतज्ञान' में भूत, वर्तमान तथा भविष्य सभी प्रकार के विषय रहते हैं। मतिज्ञान में परिणाम का प्रभाव रहता है, किन्तु श्रुतज्ञान तो आप्त वचन होने के कारण परिणाम से परे और विशुद्ध है। 3. अवधिज्ञान 'अवाग्धानादवच्छिन्नविषयाद्वा अवधिः। (सर्वार्थसिद्धि) अर्थात् अधिकतर नीचे के विषय को जानने वाला होने से परिमित विषयवाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। आत्मा में एक ऐसी शक्ति मानी गयी है जिसके द्वारा उसे इन्द्रियों के अगोचर, अतिसूक्ष्म, तिरोहित एवं इन्द्रिय सन्निकर्ष के परे दूरस्थ पदार्थों का भी ज्ञान हो सकता है अर्थात् इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना एक निश्चित सीमागत रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान है। एक निश्चित अवधि/मर्यादा में स्थित पदार्थों को ही जानने से इस ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। मात्र रूपी पदार्थों को विषय करने पर इसे देशप्रत्यक्ष भी कहते हैं। यह दो प्रकार का है- भवप्रत्यय और क्षायोपशमिक (गुण प्रत्यय)। जन्म से ही प्राप्त होने वाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। देवों और नारकों को भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। जन्म से प्राप्त न होकर अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न अवधिज्ञान क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है। क्षायोपशमिक (गुण प्रत्यय) अवधिज्ञान छह प्रकार का होता है (1) अनुगामी अवधिज्ञान- जो अवधिज्ञान नेत्र के समान ज्ञाता के साथ-साथ अनुगमन करे उसे आनुगमिक अवधिज्ञान कहते हैं। (2) अननुगामी अवधिज्ञान- जिस क्षेत्र में ज्ञाता को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है उसी क्षेत्र में स्थित होकर संख्यात एवं असंख्यात योजन तक के रूपी पदार्थों को विषय करने वाला ज्ञान अननुगामी अवधिज्ञान है। अन्य क्षेत्र में यह ज्ञान सक्षम नहीं होता है। (3) वर्द्धमान अवधिज्ञान-अध्यवसायों के विशुद्ध होने पर, चारित्र की वृद्धि होने पर तथा कर्म आवरण से रहित होने पर जो अवधिज्ञान दिशाओं और विदिशाओं में चारों और बढ़ता है वह वर्द्धमान अवधिज्ञान है। (4) हीयमान अवधिज्ञान- जो अवधिज्ञान अशुभ अध्यवसायों एवं संक्लिष्ट चारित्र के कारण निरन्तर हास को प्राप्त होता है वह हीयमान अवधिज्ञान है। (5) प्रतिपाती अवधिज्ञान-प्रमाद के कारण या अन्य जन्म धारण करने से जो अवधिज्ञान एक
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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