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________________ जीव-विवेचन (3) से अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हैं और चक्षु स्वयं अंगुल के संख्यातवें भाग ६४ अपना विषय ग्रहण करती है । ' 179 से दूर शब्द श्रोत्रइन्द्रिय से स्पृष्ट होकर सुना जाता है, रूप के स्पृष्ट बिना चक्षुइन्द्रिय उसका ग्रहण करती है और घ्राण-रसना - स्पर्शन इन्द्रिय गंध - रस - स्पर्श के बद्धस्पृष्ट होने पर उनका बोध करती है।" यहाँ स्पृष्टता से तात्पर्य रज के समान शरीर पर चिपकना है और बद्धस्पृष्ट अर्थात् आत्मप्रदेश रूप हो जाना है। " ६६ जैन दर्शन में चक्षुइन्द्रिय को अप्राप्यकारी और श्रोत्र, प्राण, रसना व जिहूवा को प्राप्यकारी माना जाता है। यदि चक्षुइन्द्रिय प्राप्यकारी होती तो स्पर्शनेन्द्रिय के समान अपने आँखों में लगे हुए अंजन को जान लेती, परन्तु वह नहीं जानती अतः मन के समान चक्षु अप्राप्यकारी है। बौद्ध दार्शनिक चक्षु और श्रोत्र दोनों इन्द्रियों को अप्राप्यकारी स्वीकार करते हैं। चक्षु से भिन्न चारों इन्द्रियों में प्राप्यकारिता की योग्यता समान होते हुए भी स्पृष्टता और बद्ध स्पृष्टता की अपेक्षा से भेद है। यह भेद इन्द्रियों की विशेष सामर्थ्य शक्ति के कारण है। स्पर्शात्मक, रसात्मक और गंधात्मक पदार्थ शब्दात्मक पदार्थ से अल्प और बादर हैं तथा स्पर्शनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय व रसना इन्द्रिय ये तीनों श्रोत्रेन्द्रिय की अपेक्षा मंद शक्ति वाली हैं। अतः वे बद्धस्पृष्ट विषय का ग्रहण करती हैं। शब्दसमूह बहुत सूक्ष्म होने से केवल स्पृष्ट होकर ही श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है। एकेन्द्रियादि जीवों में इन्द्रिय जीवों के वर्गीकरण का एक आधार इन्द्रिय है । द्रव्येन्द्रिय के आश्रय से उनका नामकरण किया जाता है। द्रव्येन्द्रियों की संख्या पर भावेन्द्रियों की संख्या निर्धारित होती है। सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय ̈ जीवों में मात्र स्पर्शन इन्द्रिय, द्वीन्द्रिय" में स्पर्श और जिह्वा दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय" जीवों में तीन स्पर्शन, जिहूवा और घ्राण इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय" जीवों में पूर्व की तीन और चक्षु इन्द्रिय कुल चार इन्द्रिय होती हैं। सम्मूर्च्छिम और गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय” तथा गर्भज और सम्मूर्च्छिम मनुष्य", देव" तथा नारकी" सभी में सम्पूर्ण इन्द्रियाँ होती है। इन्द्रिययुक्त जीवों की संख्या मन इन्द्रिय वाले सबसे अल्प जीव, इससे असंख्य गुणा श्रोत्रइन्द्रिय वाले जीव हैं। इससे चक्षुइन्द्रिय वाले, घ्राणइन्द्रिय वाले और रसनाइन्द्रिय वाले अनुक्रम से अधिकाधिक हैं । अनन्तगुण इन्द्रिय रहित सिद्ध जीव और इनसे अनन्त गुणा स्पर्शनेन्द्रिय वाले जीव हैं।' ७
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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