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________________ 174 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन कहलाती है। वस्तु का यथार्थ निरूपण सम्यग्ज्ञान से युक्त सम्यग्दृष्टि ही कर सकता है। इसलिए इस संज्ञा की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि जीव संज्ञी होते हैं और मिथ्यादृष्टि सम्यग्ज्ञान रहित होने से असंज्ञी होते हैं। अतः लोकप्रकाशकार कहते हैं भवेतम्सम्यग्दृशामेव दृष्टिवादोपदेशिकी। __एतामपेक्ष्य सर्वेऽपि मिथ्यादृशो ह्यसंज्ञिनः ।। - जैन आगम वाङ्मय में प्रायः इनमें आहारादि चार संज्ञाओं के विषय में और भी प्ररूपणाएँ मिलती हैं। यथासंज्ञाकरण एवं संज्ञानिवृत्ति संज्ञा की क्रिया का करण संज्ञाकरण और संज्ञा की रचना को संज्ञानिवृत्ति कहा जाता है। करण से तात्पर्य है जिसके द्वारा कोई क्रिया की जाए या क्रिया का साधन। निर्वृत्ति भी क्रिया रूप है, परन्तु करण और निवृत्ति में प्रारम्भिक एवं अन्तिम अवस्था का अन्तर होता है। क्रिया का प्रारम्भ तो करण कहलाता है और क्रिया की निष्पत्ति (पूर्णता) निवृत्ति कहलाती है। सामान्यतः संज्ञाएँ चार मानी गई हैं, अतः संज्ञाकरण व संज्ञानिवृत्ति भी चार-चार प्रकार की स्वीकार की गई हैंचार संज्ञाकरण- १. आहारसंज्ञाकरण २. भयसंज्ञाकरण ३. मैथुनसंज्ञाकरण ४. परिग्रहसंज्ञाकरण चार संज्ञानिवृत्ति - १. आहारसंज्ञानिवृत्ति २. भयसंज्ञानिवृत्ति ३. मैथुनसंज्ञानिवृत्ति ४. परिग्रहसंज्ञानिवृत्ति चौबीस दण्डकों में वैमानिक पर्यन्त जीवों में ये चारों संज्ञाकरण व संज्ञानिवृत्ति पाई जाती हैं। चार गति व चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में संज्ञा सामान्य रूप से चार गति व चौबीस दण्डकवर्ती प्रत्येक जीव में दसों ही संज्ञाएँ पाई जाती हैं।" एकेन्द्रिय जीवों में ये संज्ञाएँ अव्यक्त रूप से रहती हैं और तीन विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) में व्यक्ताव्यक्त रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। जबकि पंचेन्द्रिय में ये स्पष्टतः देखी जाती हैं। प्रज्ञापना सूत्र के अष्टम पद में नारकादि पंचेन्द्रिय जीवों को लेकर संज्ञा का विचार किया गया है। बाह्य कारणों की अपेक्षा से सभी पंचेन्द्रिय जीवों में कम से कम एक संज्ञा प्रभूत मात्रा में होती है, जबकि आन्तरिक अनुभव रूप मनोभाव की अपेक्षा से वे चारों संज्ञाओं से युक्त होते हैं। नारकों में संज्ञा विचार- दुःख की ज्वाला से संतप्त नारकों में सबसे अल्प मैथुन संज्ञा होती है। मैथुन संज्ञक नारकों से आहारसंज्ञक नारक अधिक हैं एवं परिग्रह संज्ञा इन दोनों से अधिक होती है।
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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