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________________ 171 जीव-विवेचन (3) अनुभव संज्ञा के भेदों का स्वरूप अनुभव संज्ञा के चार, दस एवं सोलह भेद कहे गए हैं, उनका स्वरूप यहाँ प्रतिपादित है। (1) आहार संज्ञा- 'आहाराभिलाषः आहारसंज्ञा" अर्थात् आहार ग्रहण करने की अभिलाषा आहारसंज्ञा कहलाती है। यह संज्ञा तैजस शरीर नामकर्म एवं असातावेदनीय कर्मोदय का परिणाम है। इसकी उत्पत्ति अन्तरंग और बाह्य दो कारणों से होती है। असाता रूप क्षुधावेदनीय कर्मोदय अन्तरंग कारण बनता है और बाह्य कारण इस प्रकार हैं:- १. पेट का खाली होना २. आहार विषयक चर्चा के अनन्तर आहार ग्रहणार्थ मति उत्पन्न होना ३. आहार के विषय में चिन्तन करना। (2) भय संज्ञा- 'भयसंज्ञा त्रासरूपा।” अर्थात् भयसंज्ञा त्रासस्वरूप है। भयमोहनीय कर्म के उदय से भयभीत प्राणी के नेत्र, मुख में विकारोत्पत्ति, शरीर में रोमांच, कम्पन, घबराहट आदि मनोवृत्ति रूप क्रिया का नाम भयंसंज्ञा है। सत्त्वहीनता, भयजनक वार्ता, श्रवणानन्तर उत्पन्न मति व भय का सतत चिन्तन ये सभी भयसंज्ञा के बाह्य कारण हैं और मोहनीय कर्मोदय अन्तरंग कारण है।" (3) मैथुन संज्ञा- 'मैथुनसंज्ञा स्त्रयादिवेदोदयरूपा* मोहनीय कर्मोदय के कारण पुरुषवेद से स्त्री प्राप्ति की अभिलाषा रूप क्रिया, स्त्रीवेद से पुरुष प्राप्ति की अभिलाषा रूप क्रिया एवं नपुंसक वेद से दोनों की अभिलाषा रूप क्रिया का नाम मैथुनसंज्ञा है। इस संज्ञा उत्पत्ति के तीन मुख्य बाह्य कारण दृष्टिगोचर होते हैं- १. अत्यधिक मांस शोणित का उपचय २. काम-कथा श्रवणानन्तर उत्पन्न मति ३. मैथुन का सतत चिन्तन। (4) परिग्रह संज्ञा- 'परिग्रहसंज्ञा मूर्छारूपा" अर्थात् लोभ मोहनीय कर्मोदय से संसार के सचित्त-अचित्त पदार्थों को आसक्तिपूर्वक ग्रहण करने की अभिलाषा का नाम परिग्रहसंज्ञा है। परिग्रह पास में रहने से, परिग्रह-कथा श्रवण पश्चात् उत्पन्न मति से और परिग्रह का सतत चिन्तन करने से परिग्रह संज्ञा का उद्भव होता है। (5) क्रोध संज्ञा- 'क्रोधसंज्ञा अप्रीतिरूपा क्रोधमोहनीय कर्मोदय से प्राणी के शरीर में मुख का फूलना, नेत्रों का लाल होना, होंठ का फड़कना आदि रूपों में विकृति आती है इसी का नाम क्रोधसंज्ञा (6) मानसंज्ञा- 'मानसंज्ञा गर्वरूपा" अर्थात् मानमोहनीय के उदय से जीव के भावों की अहंकार, दर्प, गर्व आदि में परिणति मानसंज्ञा कहलाती है। (1) मायासंज्ञा- 'मायासंज्ञा वक्रतारूपा" अर्थात् मायामोहनीय कर्मोदय से जीव की वक्रता पूर्वक
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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