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________________ लेखकीय पंचम अध्याय में योग, मान, लघु एवं दिगाश्रित अल्पबहुत्व, अन्तर, भवसंवेध और महाअल्पबहुत्व इन सात द्वारों से जीव का निरूपण किया गया है। अन्य भारतीय दर्शनों की तरह जैन दर्शन भी मोक्ष से जोड़ने वाली समस्त साधना को योग कहता है। किन्तु जैन दर्शन में मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति को भी योग कहा गया है। योग के मुख्यतः तीन भेद हैं- काययोग, वचनयोग और मनोयोग। इनमें मन के चार, वचन के चार एवं काय के सात भेद होने से योग के पन्द्रह प्रकार .. भी निरूपित हैं। जैन आगमों में 'मान' शब्द मापन अर्थ में भी प्रयुक्त है। उपाध्याय विनयविजय ने लोक में जीवों की संख्या का निरूपण दो दृष्टियों से किया है- १. जीवों की परस्पर न्यूनाधिकता के आधार पर २. पूर्व आदि दिशाओं के आधार पर। एक जीव मृत्यु को प्राप्त होकर पुनः उस गति में कितने काल के पश्चात् जन्म ग्रहण करता है, इस काल व्यवधान को जैन पारिभाषिक शब्दावली में अन्तर कहा गया है। विनयविजय ने अन्तर द्वार के अन्तर्गत गति, जाति, काय और पर्याय के आधार पर इस काल व्यवधान का विचार किया है। किसी जीव के वर्तमान जन्म और परवर्ती जन्म अथवा पूर्ववर्ती जन्म के आधार पर उसके जघन्य एवं उत्कृष्ट जन्मों की गणना करना भवसंवेध कहलाता है। यह भवसंवेध तीन आधारों पर निरूपित किया गया है- १. औदारिक शरीरी जीवों द्वारा वैक्रिय शरीर प्राप्त करने पर। २. वैक्रिय शरीरी जीवों द्वारा औदारिक शरीर प्राप्त करने पर और ३. औदारिक शरीरी जीवों द्वारा औदारिक शरीर प्राप्त करने पर। षष्ठ अध्याय क्षेत्रलोक' में जैन दर्शन के खगोल और भूगोल का निरूपण किया गया है। जैन दर्शन में लोक षड्द्रव्यमय है तथा मात्र आकाश द्रव्य के अस्तित्व वाले भाग को अलोक कहा गया है। लोक का आकार दोनों पैर फैलाकर कमर पर हाथ रखे खड़े पुरुष के समान प्रतिपादित है। कटि प्रदेश के नीचे का भाग अधोलोक, ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक और दोनों का मध्यभाग मध्यलोक है। लोक के ये त्रिविध भागों के नाम स्थानपरत्व और शुभता-अशुभता की तीव्रता-मन्दता के आधार पर अभिहित किए गए हैं। चौदह रज्जुओं और खंडुक प्रमाण में लोक का विभागीकरण बताया गया है। सम्पूर्ण लोक के मध्य एक रज्जु चौड़ी, लम्बी और ऊँची त्रसनाली है। सभी त्रस जीव इसी के अन्दर रहते हैं, बाहर नहीं। जैन दर्शन में दिशा-विदिशा का कथन मध्यलोक में स्थित सुमेरु पर्वत एवं उसके भी मध्यभाग रुचक प्रदेश को केन्द्र मानकर किया जाता है। इसी के आधार पर पूर्व आदि छह मुख्य दिशा और ईशान, आग्नेय, नैऋत्य एवं वायव्य चार विदिशाएँ अंगीकार की गई हैं। विनयविजय ने दिशाओं के सात भेद भी निरूपित किए हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, ताप, भाव और प्रज्ञापक। यह
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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