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________________ 130 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन का अनुभव भी लेश्या के द्वारा किया जाता है। ४. 'योगपरिणामो लेश्या' अर्थात् योगों के परिणाम विशेष को भी लेश्या कहते हैं। ५. 'अध्यवसाये आत्मनः परिणामविशेषे, अन्तःकरणवृत्तौ।' अर्थात् आत्मा के परिणाम विशेष, ___ अन्तःकरणवृत्ति या अध्वसाय के अर्थ में 'लेश्या' शब्द प्रयुक्त होता है। ६. 'लिम्पतीति लेश्या। कर्मभिरात्मानमित्यध्याहारापेक्षित्वात्। अथवाऽऽत्मप्रवृत्तिसंश्लेषणकारी लेश्या।' जो लिम्पन करती है वह लेश्या है। जो आत्मा को कमों से लिप्त करती है अर्थात् आत्मा को कर्म रूपी द्रव्य से बांधती है वह लेश्या है अथवा जो आत्मा और कर्म का सम्बन्ध करने वाली है उसको लेश्या कहते हैं।" ७. जिसके द्वारा जीव पुण्य-पाप से स्वयं को लिप्त करता है, उनके आधीन करता है, उसे लेश्या कहते हैं। जिस प्रकार आमपिष्ट से मिश्रित गेमिट्टी के लेप द्वारा दीवाल लीपी या रंगी जाती है उसी प्रकार शुभ-अशुभ भाव रूप लेप के द्वारा आत्मा लिप्त होती है, वह लेश्या है।०२ ८. कर्मग्रन्थ के अनुसार लेश्या का व्युत्पत्त्यर्थ है- 'लिश्यते श्लिष्यते कर्मणा सह आत्मा अनयेति लेश्या' अर्थात् जिसके द्वारा कर्मों के साथ आत्मा श्लिष्ट हो जाए वह लेश्या है।०३ ६. स्थानांग सूत्र की वृत्ति में एक मत उद्धृत करते हुए अभयदेवसूरि लिखते हैं-लेश्या कर्म निर्झर (निष्यन्द) रूप है।" जिस प्रकार वर्णन की स्थिति का निर्धारण उसमें विद्यमान श्लेष द्रव्य के आधार पर होता है, वैसे ही कर्मबंध की स्थिति का निर्धारण लेश्या से होता है। १०.तत्त्वार्थराजवार्तिक में लेश्या को परिभाषित करते हुए आचार्य अकलंक लिखते हैं 'कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिलेश्या अर्थात् कषाय के उदय से रंजित योग की प्रवृत्ति लेश्या है। आत्म-परिणामों की शुद्धता और अशुद्धता की अपेक्षा से इसे कृष्ण आदि नामों से पुकारा जाता है। उपाध्याय विनयविजय लेश्या के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए प्रज्ञापना सूत्र की मलयगिरि वृत्ति का ही अनुसरण करते हुए कहते हैं- कृष्ण आदि द्रव्य के संयोग से स्फटिक रत्न का जैसे अन्य नया परिणाम होता है वैसे ही कर्मों के संयोग से आत्मा का परिणाम होता है, उसे लेश्या कहते हैं।०६ अतः लेश्या वह कारक तत्त्व है जो मन-वचन-काय की प्रवृत्ति रूप योग और कषाय से युक्त होकर आत्मा का कर्मों के साथ सम्बन्ध करवाता है। लेश्या की उपर्युक्त परिभाषाओं एवं अन्य विवरण के आधार पर उसके सम्बन्ध में मुख्य
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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