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________________ लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन अज्झवसाण निमित्ते आहारे वेयणापराघाए । फासे आणापाणू सत्तविहं भिज्झए आउं ।। २० उपर्युक्त सात कारणों से अकालमृत्यु होना सोपक्रम भवस्थिति कहलाती है । सातों कारणों का विस्तृत विवेचन इस प्रकार है- ( १ ) राग, स्नेह व भय त्रिविध अध्यवसाय मृत्यु के कारण बनते हैं। (२) निमित्त से अर्थात् विषपान, शस्त्रघात आदि से मृत्यु होती है । (३) आहार से अर्थात् अत्यल्प, अत्यधिक, बहुत भारी, अतीव लूखा, विकारी या अहितकारी भोजन करने से मृत्यु होती है । ( ४ ) वेदना अर्थात् शूलि, फांसी आदि से; (५) पराघात अर्थात् किसी का अनिष्ट किया हो उसके घ से; (६) स्पर्श से अर्थात् विषैले स्पर्श से और (७) श्वासोच्छ्वास अर्थात् किसी व्याधि के कारण जोर से श्वासोच्छ्वास चलने पर या रोकने पर मृत्यु होती है। निरुपक्रम आयुष्य - एक भव की आयुष्य पूर्ण कर मरना अथवा अकालमृत्यु न होना निरुपक्रम आयुष्य कहलाता है। असंख्यात वर्ष आयुष्य वाले मनुष्य, तिर्यंच, चरम शरीरी, नारकी, देव और तिरेसठ शलाका पुरुष निरुपक्रमी ( अकालमृत्यु नहीं है जिसकी ) आयुष्य वाले होते हैं। शेष सभी सोपक्रमी आयुष्य वाले होते हैं। २२१ २२२ 88 सोपक्रम और निरुपक्रम आयुष्य के ये दो भेद मनुष्य और तिर्यंच गति में ही दृष्टिगोचर होते हैं। देव और नारक तो पूर्णतः निरुपक्रम आयुष्य वाले हैं। अतः चारों गतियों में भवस्थिति और कायस्थिति का विवेचन निम्नानुसार है षड्कायिक जीवों की भवस्थिति एवं कायस्थिति सूक्ष्म एकेन्द्रिय- सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की भवस्थिति उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त और जघन्यतः क्षुल्लक (छोटे) भवरूप अन्तर्मुहूर्त की होती है। इनकी कायस्थिति त्रिविध होती है २२३ (1) अनादि अनन्त - जो सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव कभी भी अनादि सूक्ष्म निगोद से नहीं निकलने वाले हैं, उनकी अनादि अनन्त कायस्थिति होती है। २२४ से बाहर नहीं अथवा जो २२५ (2) अनादि सांत- भूतकाल में जो सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव कभी भी सूक्ष्म निगोद में आए हैं, परन्तु भविष्यकाल में आने वाले हैं उनकी अनादि सांत कायस्थिति होती है। एक बार सूक्ष्म निगोद से बाहर आ गए हैं वे भी अनादि सान्त कायस्थिति वाले हैं। (3) सादि सांत - एक बार सूक्ष्म एकेन्द्रिय निगोद से निकल कर जो जीव पुनः निगोद में जाता है तथा वहाँ जितने समय तक रहता है वह कायस्थिति सादि सान्त है। इसका काल से मान असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक हो सकता है।' २२६ बादर एकेन्द्रिय- सकल पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट भवस्थिति २२ हजार वर्ष है। उनकी भिन्न-भिन्न
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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