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________________ लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1) निर्वृति शब्द का अर्थ 'शरीर' है। शरीरपर्याप्ति पूर्ण न होने तक जीव को निर्वृत्ति अपर्याप्त कहा जाता है। जबकि श्वेताम्बर परम्परानुसार करण शब्द का अर्थ शरीर, इन्द्रिय आदि किया जाता है। अतः जिसने शरीर पर्याप्ति पूर्ण की है, किन्तु इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण नहीं की है वह भी करण अपर्याप्त कहलाता है अर्थात् शरीर रूप करण पूर्ण करने से करण पर्याप्त और इन्द्रिय रूप करण पूर्ण न करने से करण-अपर्याप्त कहा जा सकता है। पर्याप्तनामकर्म के उदय से जीव को शरीर निष्पन्न नहीं होने पर भी पर्याप्त कह सकते हैं, क्योंकि पर्याप्तनामकर्म का उदय होना और शरीर पर्याप्ति का निष्पन्न होना ये दोनों कार्य भिन्न-भिन्न हैं। अतः उन जीवों को पर्याप्त कहने में कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता है। ___आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि के 'षट्खण्डागम' की धवला टीका में एक अन्य पर्याप्ति 'अतीत पर्याप्ति' का उल्लेख मिलता है- “एदांसि छण्हमभावो अदीदपज्जत्ती णाम' अर्थात् छह पर्याप्तियों के अभाव को अतीत पर्याप्ति कहते हैं। पर्याप्ति और प्राण में तुलना आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनपान, भाषा और मनरूप शक्तियों की पूर्णता के कारण को पर्याप्ति कहते हैं और आत्मा जिनके द्वारा जीवन संज्ञा को प्राप्त होता है वह प्राण है। पर्याप्तियाँ छह प्रकार की कही गई है- आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति। प्राण दस होते हैं- श्रोत्रेन्द्रियबलप्राण, चक्षुइन्द्रियबलप्राण, घ्राणेन्द्रियबलप्राण, रसनेन्द्रिय बलप्राण, स्पर्शनइन्द्रियबलप्राण, मनोबलप्राण, वचनबलप्राण, कायबलप्राण, श्वासोच्छ्वास बलप्राण और आयुष्यबलप्राण। पर्याप्तियाँ जीव के शारीरिक विकास क्रम की सूचक हैं तथा प्राण जीव के शरीर में चेतना का संचरण करता है। इन दोनों की विषमताएँ कुछ इस प्रकार हैं१. पर्याप्ति पहले होती है एवं प्राण उसके अनन्तर आते हैं। अतः पर्याप्ति कारण है एवं प्राण कार्य है। २. पर्याप्ति छह होती हैं और प्राण दस होते हैं। ३. पर्याप्ति में आयु का सद्भाव नहीं होता है, जबकि प्राणों में आयु का सूचक आयुष्यबलप्राण होता है। ४. पर्याप्ति से शक्तियाँ प्रवाहित होती हैं, अतः ये शक्तिस्रोत हैं और प्राणों में शक्तियाँ निहित होती हैं, इसलिए ये शक्तिकेन्द्र हैं। ५. अपर्याप्त काल में पर्याप्ति का अपर्याप्त रूप से सद्भाव होता है अतः पर्याप्तियाँ पर्याप्त एवं
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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