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________________ लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन प्रतिपादन अनेक स्थानों पर द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की दृष्टि से किया गया है। आवश्यकनियुक्ति (गाथा ६८२) में लोक का निक्षेप- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव एवं पर्याय के भेद से आठ प्रकार का निगदित है। आचार्य हरिभद्रसूरि (७००-७७० ई.) ने सर्वप्रथम 'लोकविंशिका' कृति में द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक एवं भावलोक इन चार प्रकारों का कथन किया है, किन्तु इन प्रकारों को आधार बनाकर विशाल ग्रन्थ की रचना करने का अद्भुत कार्य उपाध्याय विनयविजय की सुतीक्ष्ण लेखनी से प्रसूत हुआ है। ग्रन्थ के प्रथम ११ सों में द्रव्यलोक का, १२ से २७ सों में क्षेत्रलोक का, २८ से ३५ सर्गों में काललोक का तथा ३६ वें सर्ग में भावलोक का विवेचन हुआ है। अन्तिम ३७वें सर्ग में ३६ सगों की विषयवस्तु का उपसंहार है। द्रव्यलोक में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय नामक पांच अस्तिकाय द्रव्यों का विशिष्ट निरूपण हुआ है। विशेषतः इसके अन्तर्गत जीव के दो से लेकर २२ भेद किए गए हैं तथा उनका ३७ द्वारों से विवेचन किया गया है। इन द्वारों के आधार पर जीवों का विवेचन भगवतीसूत्र, प्रज्ञापना सूत्र आदि आगमों एवं उत्तरवर्ती जैन वाङ्मय की मर्मज्ञता में लेखक की दक्षता का बोध कराता है। जैन परम्परा में आगमों के तात्त्विक बोध हेतु अभी स्तोकों (थोकड़ों) का विशेष महत्त्व है, उनसे भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण लोकप्रकाश ग्रन्थ प्रतीत होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ की लेखिका डॉ. हेमलता जैन ने लोकप्रकाश का हार्द समझ कर भेद, स्थान, पर्याप्ति, योनि, कुल संख्या, भवस्थिति, कायस्थिति आदि ३७ द्वारों का स्वरूप समझाते हुए उनमें जीव के विभिन्न प्रकारों को घटित किया है। यह शैली लोकप्रकाशकार की शैली से भिन्न है, क्योंकि लोकप्रकाशकार ने जीव के भेदों में ३७ द्वार घटित किए हैं तथा डॉ. जैन ने ३७ द्वारों में जीव के भेद घटित किए हैं। इससे विषय का बोध सुगम हो गया है तथा कुछ पुनरावृत्ति भी कम हुई है। इस विवेचन में योनि, भवस्थिति, कायस्थिति, शरीर, संस्थान, समुद्घात, लेश्या, कषाय, संज्ञा, संज्ञी, दृष्टि, ज्ञान, दर्शन, गुणस्थान, योग, भवसंवेध आदि द्वार विशेष महत्त्व रखते हैं। डॉ. जैन ने पारम्परिक मान्यताओं के साथ लोकप्रकाशकार उपाध्याय विनयविजय जी के चिन्तन को भी प्रस्तुत किया है। उदाहरण के लिए 'लेश्या' द्वार में लेखिका ने हरिभद्र, अकलंक, मलयगिरि, नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि, नेमिचन्द्र, सिद्धान्तचक्रवर्ती, पंचसंग्रहकार, कर्मग्रन्थकार आदि के मतों का उल्लेख कर विनयविजय जी का भी मन्तव्य दिया है कि लेश्या के बिना कर्म-पुद्गलों का आत्म-प्रदेशों से संयोग नहीं होता है, इनका कर्मसंयोग में अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध है, अतः लेश्या भी द्रव्य है, जिनका समावेश योग वर्गणा में होता है। इसी प्रकार संज्ञा, संज्ञी आदि द्वारों में भी लोकप्रकाशकार का चिन्तन अभिव्यक्त हुआ है। संज्ञा के अन्तर्गत ज्ञानसंज्ञा, अनुभवसंज्ञा के विवेचन के अनन्तर दीर्घकालिकी, हेतुवाद एवं दृष्टिवाद संज्ञा को समझाया गया है। संज्ञी शब्द का प्रयोग प्रायः समनस्क जीवों के लिए होता है, किन्तु उपाध्याय विनयविजयजी के अनुसार दीर्घकालिकी संज्ञायुक्त जीव संज्ञी
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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