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________________ ५०८ ४९ नवतत्त्वसंग्रहः पुन ही(वी?)ते हाथ रीते संपत विपत लीते हाय साद रोद कीते जो निज नाथ(थान ?) रे सोग भरे छोर चरे वनमे विलाप करे आतम सीयानो काको करता गुमान रे भूल परी मीत तोय निज गुन सब खोय कीट ने पतंग होय अप्पा वीसरतु है हीन दीन डीन चास दास वास खीन त्रास काश पास दुःख भीन ज्ञानते गीरतु है दुःख भरे झूर मरे आपदाकी तान गरे नाना सुत मित करे फिर विसरतु है आतम अखंड भूप करतो अनंत रूप तीन लोक नाथ होके दीन क्युं फीरतुं है ? महाजोधा कर्म सोधा सत्ताको सरूप बोधा ठारत अगन क्रोधा जडमति धोया हुं अजर अमर सिद्ध पुरन अखंड रिद्ध तेरे विन कौन दीध सब जग जोया हुं मुससे तु न्यारो भयो चार गति वास थयो दुःख कहुं(?) अनंत लयो आतम वीगोया हुं करता भरमजाल फस्यो हुं बीहाल हाल तेरे विन मित मैं अनंत काल रोया हुं यम आठ कुमतासें प्रीत करी नाथ मेरे हरे सब गुन तेरे सत बात बोलुं हुं महासुखकारी प्यारी नारी न्यारी छारी धारी मोह नृप दारी कारी दोष भरे तोरुं हुं हित करुं चित्त धरूं सुखके भंडार भरुं सम्यक सरूप धरुं कर्म छार छोरुं हुं आतम पीयार कर कतां(कुमत ?) भरम हट तेरे विन नाथ हुं अनाथ भइ डोलुं हुं रुल्यो हुं अनादि काल जगमें बीहाल हाल काट गत चार जाल ढार मोहकीरको नर भव नीठ पायो दुषम अंधेर छायो जग छोर धर्म धायो गायो नाम वीरको कुगुरु कुसंग नो(तो)र सत मत जोर दोर मिथ्यामति करे सोर कौन देवे धीरको ? आतम गरीब खरो अब न विसारो धरो तेरे विन नाथ कौन जाने मेरी पीरको? रोग सोग द:ख परे मानसी वीथाकं धरे मान सनमान करे हं करे जंजीरको .. मंदमति भूप(त) रूप कुगुरु नरक हूत संग करे होत भंग काची (कांजी ?) संग छिरको चंचल विहंग मन दोरत अनंत(ग?) वन धरी शीर हाथ कौन पुछे वृग नीरको आतम गरीब खरो स(अ)ब न विसारो धरो तेरे बीन नाथ कौन मेटे मेरी पीरको? लोक बोक जाने कीत आतम अनंत मीत पुरन अखंड नीत अव्याबाध भूपको चेतन सुभाव धरे जडतासो दूर परे अजर अमर खरे छांडत विरूपको नरनारी ब्रह्मचारी श्वेत श्याम रूपधारी करता करम कारी छाया नहि धूपको अमर अकंप धाम अविकार बुध नाम कृपा भइ तोरी नाथ जान्यो निज रूपको वार वार कहं तोय सावधान कौन होय मिता नहि तेरो कोय उंधी मति छइ है नारी प्यारी जान धारी फिरत जगत भारी शुद्ध बुद्ध लेत सारी लुंटवेको ठइ है संग करो दुःख भरो मानसी अगन जरो पापको भंडार भरो सुधीमति गइ है आतम अज्ञान धारी नाचे नाना संग धारी चेतनाके नाथकं अचेतना क्या भइ है? ५३ शीत सहे ताप दहे नगन शरीर रहे घर छोर वन रहे तज्यो धन थोक है। वेद ने पुराण परे तत्त्वमसि तान धरे तर्क ने मीमांस भरे करे कंठ शोक है क्षणमति ब्रह्मपति संख ने कणाद गति चारवाक न्यायपति ज्ञान विनु बोक है रंगबी(ब)हीरंग अछु मोक्षके न अंग कछु आतम सम्यक विन जाण्यो सब फोक है ५४
SR No.022331
Book TitleNavtattva Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
PublisherSamyagyan Pracharak Samiti
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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