SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ नवतत्त्वसंग्रहः प्रश्न-नैषेधिकी अने शय्या एह दोनो चर्याके साथ विरोधी है तो दोनोका एककालमे संभव हुया. यदि एककालमे संभव हुया तदि एककालमे १९ परीषह वेदे इह सिद्ध हुया. अथ उत्तरइम नही है. किस वास्ते ? ग्राम आदि जानेकू प्रवृत्ते है तिस कालमे जाता हूया भोजनविश्रामके अर्थे औत्सुक्य परिणाम सहित थोडे काल वास्ते शय्यामे वर्ते है । तिस कालमे 'शय्या' परिषहका 'चर्या' अने 'नैषेधिकी' दोनीको साथ संबंध है. इस वास्ते २० ही परिषह एककालमे वेदे है. यो ऐसे कह्या तो षड्विध बंधक आश्री कह्या है. जिस समये चर्या है तिस समय शय्या नही. इहां कैसे संभव हूया ? उत्तर-षड्विध बंधकके 'मोह' कर्म उदयमे बहुत नहीं है इस वास्ते शय्याकालमे औत्सुक्य परिणामका अभाव है इस वास्ते. शय्याकालमे शय्या ही है, परंतु बादर-रागके उदय औत्सुक्य करके विहारके परिणाम नही. इस वास्ते परस्पर विरोधी होने करके दोनो युगपत् एककालमे नही. इति अलं चर्चेण (चर्चया). उत्तराध्ययनके २४ मे अध्ययनात् पांच समिति, तीन गुप्ति स्वरूप- प्रथम ईर्यासमिति-आलंबने १, काल २, मार्ग ३, यत्न ४ ए चार प्रकारे. शुद्ध ईर्या शोधे तिहां आलंबन-ज्ञान १, दर्शन २, चारित्र ३ इन तीनोकू अवलंबीने ईर्या शोधे १. काल थकी दिवसमे ईर्या शोधे २. मार्ग थकी उत्पथ वर्जे ३. यत्नाके चार भेद है-द्रव्य १, क्षेत्र २, काल ३, भाव ४. द्रव्य थकी तो चक्षुसे देख कर चाले १. क्षेत्र थकी चार हाथ प्रमाण धरती देखीने चाले २. काल थकी जितना काल चलनेका तहां लग यत्न करी चाले ३. भाव थकी उपयोग सहित. उपयोग सहित किस तरे होवे ? पांच इन्द्रियकी विषयथी रहित पांच प्रकारकी वाचना आदि स्वाध्याय रहित शरीरकू ईर्यारूप करे. ई-में उद्यम एह उपयोग थकी ईर्या शोधे इति ईर्यासमिति. भाषासमिति. क्रोध १, मान २, माया ३, लोभ ४, हास्य ५, भय ६, मुखारि (मौखर्य) ७, विकथा ८ ए आठ स्थानक वर्जीने बोले. असावद्य मर्यादा सहित भाषा बोले. उचित काले बोले. तथा दश भेदे सत्य, बारां भेदे व्यवहार, एवं २२ भेदे भाषा बोले. ते बावीस भेद लिख्यते. (१) जणवए सच्चे-'जनपद'सत्य. जौनसे देशमे जो भाषा बोले सो तिहां सत्य. जैसे 'कोकन' देशमे पाणीकू पिछ, कोइ देशमे बडे पुरुषकू बेटा कहै वा बेटेकू काका, पिताकू भाइ, सासूकू आइ. सो सत्यम्. (२) सम्मत (य)-'संमत'सत्य. जैसे पंकसे उपना मींडक, सेवाल अने कमल, तो हि पिण कमलने 'पंकज' कहीये पिण मींडक, सेवालने 'पंकज' शब्द नही. (३) ठवणा-'स्थापना'सत्य. जिसकी मूर्ति स्थापी है सो मूर्तिकू देव कहना जूठ नही. (४) नाम-'नाम' सत्य. 'कुलवर्धन' नाम है, चाह कुलका क्षय करे तो पिण कुलवर्धन कहना जूठ नही. (५) रूवे--गुणकरी भ्रष्ट है तो पिण साधुके वेषवालेकू 'साधु' कहीये. (६) पडुच्च'अपेक्षा'सत्य. जैसे मध्यमाकी अपेक्षा अनामिकी कनिष्ठा अंगुली है. (७) ववहार-'व्यवहार'
SR No.022331
Book TitleNavtattva Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
PublisherSamyagyan Pracharak Samiti
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy