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________________ १७४ ५। ९२ नवतत्त्वसंग्रहः मनुष्य-आनुपूर्वी १, एवं १७ नही. छठेमे आठ टली-प्रत्याख्यानावरण ४, तिर्यंच आयु १, तिर्यंच गति १, उद्द्योत १, नीच गोत्र १, एवं ८ टली, अने दोय वधी-आहारक १, तदुपांग १. सातमे पांच टली-निद्रा ३, आहारक १, तदुपांग १, एवं ५ टली. आठमे ४ टलीसम्यक्त्वमोहनीय १, छेहला तीन संहनन ३, एवं ४ टली. नवमे ६ टली-हास्य १, रति १, शोक १, अरति १, भय १, जुगुप्सा १, एवं ६ टली. दशमे ६ टली-वेद ३, लोभ विना संज्वलनकी ३, एवं ६ टली. ग्यारमे एक संज्वलनका लोभ टला. बारमे संहनन २ टले. अने द्विचरम स(म)य दोय निद्रा टली. तेरमे एक जिननाम वध्या. चौदमे १८ टली, १२ रही तिन बारांका नाम-साता वा असाता १, मनुष्यगति १, पंचेन्द्रिय जाति १, सुभग १, त्रसनाम १, बादर १, पर्याप्त १, आदेय १, यश १, तीर्थंकर १, मनुष्य-आयु १, उंच गोत्र १, एवं १२ है. छेहले समय एक वेदनीय १, उंच गोत्र १, एवं २ टली. तीर्थंकरकी अपेक्षा एह १२. तथा ९ का उदये. २४ | ध्रुव सत्ता | १३० | १३० | १३० | १३० | १२० | १३० | ९१ . ध्रुव सत्ता १३० है, तद्यथा-ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ९, वेदनीय २, सम्यक्त्वमोहनीय १, मिश्रमोहनीय १, ए दो विना २६ मोहकी, तिर्यंच गति १, जाति ५, वैक्रिय १, आहारक विना शरीर ३, औदारिक अंगोपांग १, पांच बंधन-(१) औदारिक बंधन, (२) तैजस बंधन, (३) कार्मण बंधन, (४) औदारिक तैजस कार्मण बंधन, (५) तैजस कार्मण बंधन, एवं ५, इम पांच ही संघातन, संहनन ६, संस्थान ६, वर्ण आदि २०, तिर्यंच-आनुपूर्वी १, विहायोगति २, प्रत्येक ७ तीर्थंकर विना, त्रस आदि १०, स्थावर आदि १०, नीच गोत्र १, अंतराय ५, एवं १३०. १३० बंधना मध्ये पांच बंधन टले है ते लिख्यते-वैक्रिय बंधन १, आहारक बंधन १, वैक्रिय तैजस कार्मण बंधन १, आहारक तैजस कार्मण बंधन १, औदारिक आहारक तैजस कार्मणबंधन १, एवं ५ बंधने टले. ध्रुव सत्ताका अर्थ-जां लगे ए प्रकृतिकी सत्ता कही है तां लगे सदाइ लाभे, इस वास्ते 'ध्रुव सत्ता' कहीये. सातमे गुणस्थान ताइ १३० की सत्ता. आठमे क्षपक उपशम श्रेणिकी अपेक्षा दो प्रकारकी सत्ता जाननी-१३० की सत्ता उपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा ग्यारमे ताइ जाननी, अने क्षपककी अपेक्षा आठमे पांच टली, तद्यथा-अनंतानुबंधी ४, मिथ्यात्वमोहनीय १ एवं ५ टली. नवमे ३३ टली-निद्रानिद्रा १, प्रचलाप्रचला १, स्त्यानद्धि १, मोहकी १९ संज्वलनके माया, लोभ विना, तिर्यंच गति १, पंचेन्द्रिय विना जाति ४, तिर्यंच-आनुपूर्वी १, आतप १, उद्द्योत १, स्थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, एवं ३३ टली. नवमेके नव भाग करके ३३ टालनी, यथा-प्रथम भागमे तो आठमे गुणस्थानवत्. दूजे भागमे १४ टली-तिर्यंचद्विक २, जाति ४, थीणत्रिक ३, उद्द्योत १, आतप
SR No.022331
Book TitleNavtattva Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
PublisherSamyagyan Pracharak Samiti
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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