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________________ १०२ नवतत्त्वसंग्रहः व्याकरणसे जानना. ए पणि द्रव्यश्रुत कहीये. ३ लब्ध्यक्षरं. अक्षर उचरवानी लब्धि अथवा अक्षरार्थ समजावनेकी लब्धि ते 'लब्धयक्षर' कहिये. तथा लब्ध्यक्षरश्रुत छ प्रकारे है. स्पर्शनेन्द्रियलब्धयक्षरं. स्पर्शन-इन्द्रिये मृदु, कर्कश आदि स्पर्श पामीने अक्षर जाणे जे अर्क, 'तूल आदि ऊर्ण, वस्त्र आदिक शब्दार्थने विचारे ते 'स्पर्शनेन्द्रियलब्ध्यक्षर' श्रुत कहीये. एवं पांचे इन्द्रियनी विषयका समझना. एवं मनकी वस्तुके अक्षर समझने ते 'नोइन्द्रियलब्ध्यक्षर' श्रुत । ___अथ दूजा भेद अनक्षर श्रुत-जिहां स्पष्टपणे अक्षर भासे नही तेहने 'अनक्षर श्रुत' कहीये. ते उच्छवास निःश्वास निष्ठीवन काश क्षुत सीटी आदिक अनेक प्रकारे जानना. __ अथ संज्ञी श्रुत-जेहने संज्ञा हुइ तेहने 'संज्ञी' कहीये. तेहनो श्रुत ते 'संज्ञी श्रुत' कहीये. ते संज्ञी श्रुत तीन प्रकारना है. तेहना स्वरूप यंत्रात्(३७) संज्ञीश्रुतस्वरूपयंत्रम् (३८) असंज्ञीश्रुतस्वरूपयंत्रम् दीर्घ- | जो प्राणीने पूर्वापर अर्थनी दीर्घ | दीर्घ | जे प्राणी पूर्वापर विचार न जाणे कालिकी | विचारणा हुइ पूर्वे इम था, संप्रति कालिकी| तिसकू 'दीर्घकालि(की) उपदेशे उपदेशेन | इम है, आगे एवमस्तु-इम होवेगी उपदेशेन | करी असंज्ञी' कहीये. ते संमूच्छिम संज्ञी ऐसा विचारे तेहने 'दीर्घकालिकी असंज्ञी | पंचेन्द्रिय मनुष्य, तिर्यंच, विकलेउपदेशेन-उपदेश करी संज्ञी' क |न्द्रिय, एकेन्द्रिय जानना. हीए. ते गर्भज मनुष्य, तिर्यंच, देव, नारकी, मनःपर्याप्तिना धारक जानना. इति दीर्घकालिकी जे प्राणी स्वदेह पालनेके अर्थे इष्ट | हेतु | जे प्राणी स्वदेह पालनेके अर्थे इष्ट उपदेशेन आहार आदिमें प्रवर्ते, अनिष्टथी उपदेशेन | वस्तु आहार आदिकके वास्ते प्रवर्ती निवर्ते इतनाही जाणे पिण ओर असंज्ञी | न शके अने अनिष्ट थकी निवर्ती न कछु पूर्वापर अर्थ न जाणे तेहने शके ते स्थावर-नाम-कर्मके उदय 'हेतूपदेशेन संज्ञी कहीये.' ते संमू करी तेहने 'हितो(हेतू)पदेशे करी च्छिम पंचेन्द्रिय मनुष्य, तिर्यंच, असंज्ञी' कहीये. विकलेन्द्रिय प्राणी जानना. दृष्टिवाद दृष्टिवाद० जे प्राणीने सम्यग्दृष्टि हइ दृष्टिवाद | जे प्राणीने मिथ्यादृष्टि प्रबल हइ उपदेशेन वीतराग भाषित वचन उपरि रुचि | उपदेशेन | वीतरागनां वचन अनेकांत-स्याद्वाद हुइ ते 'दृष्टिवादोपदेशे करी संज्ञी.' असंज्ञी | रूप जाण्यां नही ते प्रथम गुणस्थानचौथे गुणस्थानसे प्रारंभी सब जीव | वर्ती जीव जानना. ते दृष्टिवाद उपज्ञेयं. देशे करी असंज्ञी. अथ पांचमा भेद सम्यक्श्रुतना कहीये है. सम्यक्श्रुतं जे श्रीजिनेन्द्र देवने वचन अनुसारे गौतम आदि गणधर रचित जे द्वादश अंग ते 'सम्यक्श्रुत' कहीये. तथा चौदा पूर्व धारीनो रच्यो यावत् दशपूर्वधारीनो रच्यो ते पिण 'सम्यक्श्रुत' जानना. दश पूर्वमे किंचित् न्यून हुइ तेहनो भाष्यो सम्यक्श्रुत हुइ अने नही पिण हुइ, “३अभिन्नदसपुव्वि जस्स समसुयं तेण परं भयणा'" इति वचनात्. १. रु । २. ऊन । ३. अभिन्नदशपूर्वाणि यस्य समश्रुतं तेन परं भजना । संज्ञी संज्ञी
SR No.022331
Book TitleNavtattva Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
PublisherSamyagyan Pracharak Samiti
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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