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________________ १६ सूक्ष्म में में १३ १०० नवतत्त्वसंग्रहः बारां कषाय में ६ । अस्ति । केवलदर्शन में १० नास्ति पर्याप्ता में अस्ति पहिली तीन भाव नास्ति संयत ५ मे ११ | अस्ति लब्धि अपर्याप्ता में | नास्ति' लेश्या में उपरली तीन अस्ति साकार अनाकार अस्ति नास्ति लेश्या में ७ में १२ सम्यक्त्व में अस्ति आहारी अनाहारी | अस्ति बादर में १७ अस्ति संज्ञी में अस्ति मिथ्यात्व ५ मे ८ | नास्ति भाषालब्धिवान में | अस्ति असंज्ञी में प्राये १८ नास्ति मति आदि ४ । अस्ति जिसके भाषा की | नास्ति भव्य में अस्ति ज्ञान में लब्धि नही १४ अभव्य में ९९ नास्ति केवलज्ञान में ९ | नास्ति प्रत्येक शरीरी में | अस्ति चरम में अस्ति चक्षु आदि ३ । अस्ति साधारण शरीरी | नास्ति अचरम में २० नास्ति दर्शन में में १५ इति सत्पद द्वार १ २. द्रव्यप्रमाणद्वार-मतिज्ञानी सदा असंख्याता लाभे इति. ३. क्षेत्रद्वारे-मतिज्ञानी सारे एकठे करे तो लोकके असंख्यातमें भाग व्यापे । ४. स्पर्शनाद्वार-मतिज्ञानी लोकके असंख्यातमें भाग स्पर्श, क्षेत्र जो एक प्रदेश ते स्पर्शना सात प्रदेश की होती है। ५. कालद्वारमतिज्ञान की स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट ६६ सागरोपम झझेरा । उपयोग आश्री मतिज्ञानी स्थिति अंतर्मुहूर्त । ६. अंतरद्वारे-मति का अंतर, जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देश ऊन अर्ध पुद्गलपरावर्त । ७. भागद्वार-मतिज्ञानी सर्व ज्ञानी अनंत में भाग अने सर्व अज्ञानी के अनंत में भाग । ८. भावद्वार-मतिज्ञान क्षयोपशम भावे है । ९. अल्पबहुत्वद्वार-नवा मतिज्ञान पडि वधनेवाले स्तोक है अने पूर्वे पडि वध्या असंख्यात गुणे । इति मतिज्ञान. अलम् । अथ श्रुतज्ञानस्वरूप लिख्यते-१. अक्षर श्रुत, २. अनक्षर श्रुत, ३. संज्ञी श्रुत, ४. असंज्ञी श्रुत, ५. सम्यक् श्रुत, ६. मिथ्या श्रुत, ७. अनादि श्रुत, ८. अपर्यवसित श्रुत, ९. सादि श्रुत, १०. सपर्यवसित श्रुत, ११. गमिक श्रुत, १२. अगमिकश्रुत, १३. अंगप्रविष्ट श्रुत, १४. अनंगप्रविष्ट श्रुत । ___अथ इन चौदका अर्थ लिख्यते-१. अक्षर श्रुत । जीवसे कदापि न क्षरे ते 'अक्षर'. तेह अक्षर श्रुत तीन प्रकार का है. संज्ञाक्षरं. जाणीये जिस करी ते 'संज्ञा' कहीये, तेहy कारण जे अक्षर-पंक्ति तेहने 'संज्ञाक्षर' कहीये. ते ब्राह्मी लिपि आदि करी अष्टादश (१८) भेदे ए द्रव्यश्रुत कहीये. एहथी भावश्रुत होता है। भावश्रुतका कारणने 'द्रव्यश्रुत' कहीये. २. व्यंजनाक्षरं. 'व्यंजन' ते अकारादि अक्षरना उच्चारने कहीये. ते अर्थका व्यंजक है-बोधक है. एतले अकारादि अक्षरना उच्चारने 'व्यंजन' कहीए. ते व्यंजन अक्षरश्रुत अनेक प्रकारका है. एक मात्राये उचरीए ते 'हस्व' कहीये. दो मात्राये उचरीये ते 'दीर्घ' कहीये. तीन मात्राए उचरीए ते 'प्लुत' कहीये. इत्यादिक भेद जैनेन्द्र
SR No.022331
Book TitleNavtattva Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
PublisherSamyagyan Pracharak Samiti
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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