SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ प्रकरण १८ मुं. -----moor ए पछी पवनवेगे अन्यमतनी आवो अनर्थ वातो सांभळीने पोताना संदेहरुपी अंधकारनो नाश करवाने माटे मनोवेगने पूछयु के-हे मित्र ! आ परस्पर विरुद्ध एवा अनेक प्रकारना अन्यमतोनो केवी रीते प्रचार थयो ते मने कहो ॥ १-२ ॥ त्यारे मनोवेगे पवनवेगनो प्रश्न सांभळीने कयुं के हे मित्र ! अन्यमतोनी उत्यत्तिनो इतिहास कहुंछु ते सांभळ ॥ ३ ॥ आ भरतक्षेत्रमा रात अने दिवसनी माफक दुनिवार छे वेग जेनो एवा उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी नामना बे काळ निरंतर क्रमथी आव्या करे छे ॥४॥ जे प्रमाणे एक वर्षमा ६ऋतु थाय छे, ते प्रमाणे एक एक काळमां एक बीजाथी जुदा मुखमा सुखमा ? सुखमा २ सुखमा दुःखमा ३ दुःखमा सुखमा ४ दुःखमा ५ दुःखमा दुःखमा ६ आवा छ विभाग थाय छे ॥ ५ ॥ एक एक काळ दश कोडा कोडी सागरनो थाय छे. जे कालमा उपर प्रमाणे सुखमा सुखमादि ६ काल थाय छे, तेने तो अवसपिणी काळ कहे छे अने ने काळमा एनाथी उलटा एटले दुःखमा दुःखमा १ दुःखमा २ दुःखमा ३ सुखमा दुःखमा ४ सुखमा ५ अने सुखमा सुखमा ६ आ प्रमाणे उत्तरोत्तर आयुकायादिकनी उन्नतिवाळा ६ काळ थाय छे, तेने उत्सर्पिणी काळ कहे छे. ए बने एक वखते बीती जाय तेने एक कल्पकाल कहे छे. हालमां जे काळ चाली रहेला , ते दश कोडा कोही सागरनो अवसर्पिणी काळ छ एनाज छ विभागोनी संक्षित व्यव
SR No.022328
Book TitleDharmpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarlal Karsandas Kapadia
PublisherMulchand Karsandas Kapadia
Publication Year1910
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy