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________________ ૦૨ • मूर्ख! जो तुं वादनुं नामज जाणतो नथी तो ब्राह्मणोने वादनी सूचन' करवावाळी भेरीने बगाडी आ सोनाना सिंहासन उपर केम बेठो ! ॥ ७१ ॥ मनोवेगे कह्युं के, हुं तो मात्र कौतुकथी भेरी वगाडीने आ सिंहासन उपर बसी गयो, नहि के वादनी इच्छायी ॥ ७२ ॥ जो सोनाना सिंहासन उपर मूर्खने बेसवुं योग्य नथी तो हे विप्रो, लो, हुं उतरी जाउं हुं, एम कहीने ते मनोवेग नीचे बेसी गयो || ७३ त्यारे विप्रोए कहां के, तुं आईंयां शामाटे आव्यो छे? मनोवेगे कह्युं के हुं भील छं. आ एक बिलाडो बेचवाने आपहुं ॥ ७४ ॥ ब्राह्मणोए कह्युं के आ बिलाडामां गुण शुं छे अने एनुं मूल्य शुं छे ते कहो. मनोवेगे कहां के, गरुडथी सर्पोनी माफक आ बिलाडानी फक्त गंधथीज ४८ कोष सुधीना उंदरोनो नाश थई जाय छे || ७५-७६ ॥ हे विप्रो ! आ मोटा प्रभावशाली बिलाडानुं मूल्य पचास सोनानी मोहर छे. जो तमने खप होय तो लइ लो ॥ ७७ ॥ ते पछी सवळा ब्राह्मणो परस्पर कहेवा लाग्या के सघळा उंदरोनो नाश करवामां समर्थ एवो आ बिलाडो लइ लेबो जोइए ॥ ७८ ॥ एक दिवसमा उंदर जेटला द्रव्यनो नाश करी दे छे तो शुं तेनाथी हजारमो भाग पण एनो न आपवामां आवे ? ॥ ७९ ॥ ए पछी सघळा ब्राह्मणोए मळीने तेज वखते ते बिलाडो पचास मोहर आपीने लई लधो, ते उचित छे दुर्लभ्य वस्तु मेळववामां बुद्धिमान विलंब करता नथी परंतु ॥ ८० ॥ त्यार मनोवेगे कह्यं के, हे विप्रो ! ए. बिलाडो त परिक्षा करीने लो, नहि तो मोठी हानी थशे तेनो पछी मने दोष आपता नहि ॥ ८१ ॥ आ बात सांभळीने ते ब्राह्मणोए बिलाडाने जोयो तो तेना कानने जोईने कहेवा लाग्या के एना कान केवी रीते जता
SR No.022328
Book TitleDharmpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarlal Karsandas Kapadia
PublisherMulchand Karsandas Kapadia
Publication Year1910
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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