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________________ आज्ञापनिकी क्रिया है। १८. वैदारणिकी क्रिया : जीव तथा अजीव का विदारण (छेदन-भेदन) करना अथवा वितारणा (ठगाई) करना, वैदारणिकी क्रिया है । १९. अनाभोगिकी क्रिया : अनाभोग - उपयोग और जयणा रहित की जाने वाली भूमिप्रमार्जना, प्रतिलेखना आदि से लगने वाली क्रिया अनाभोगिकी है। २०. अनवकांक्षप्रत्ययिकी क्रिया : अपने तथा दूसरे के हित की आकांक्षा बिना लोक विरुद्ध चोरी, परस्त्री सेवन, जुआ, शराब सेवन आदि आचरण करना, अनवकांक्षप्रत्ययिकी क्रिया है। ___२१. प्रायोगिकी क्रिया : मन-वचन-कामा के शुभाशुभ योग रूप क्रिया का नाम प्रायोगिकी है। २२. सामुदानिकी क्रिया : कर्म समुदाय को ग्रहण करने वाली, लोक समुदाय की संमति से निष्पन्न या संयमी की असंयम में प्रवृत्ति सामुदानिकी क्रिया है। २३. प्रेमिकी क्रिया : स्वयं प्रेम करना, दूसरों को प्रेम पैदा हो, ऐसा वचन बोलना, व्यवहार करना, प्रेमिकी क्रिया है। २४. द्वैषिकी क्रिया : स्वयं द्वेष करना, द्वेषोत्पादक व्यवहार करना, द्वैषिकी क्रिया है। २५. ईर्यापथिकी क्रिया : ईर्या अर्थात् गमनागमन । बिना उपयोग के गमनागमन करना, ईर्यापथिकी क्रिया है। अथवा केवल गमनागमन से कर्म का प्रवेश हो, वह क्रिया ईर्यापथिकी है। इन २५ क्रियाओं के विवेचन के साथ आश्रव तत्त्व के ४२ भेदों का कथन परिपूर्ण होता है। संवर तत्त्व के ५७ भेदों का कथन गाथा समिइ गुत्ती परिसह, जइधम्मो भावणा चरित्ताणि । पण ति दुवीस दस बार, पंच भेएहिं सगवन्ना ॥२५॥ अन्वय पण ति दुवीस दस बार पंच भेएहिं समिइ, गुत्ती, परिसह, जइधम्मो, श्री नवतत्त्व प्रकरण १२
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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