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________________ आनंद होता है, उससे होने वाला कर्मों का आगमन मायाश्रव कहलाता है। ९. लोभाश्रव : तृष्णा, आसक्ति, लोभ, लालच से जिन कर्मों का आत्मा में आगमन होता है, उसे लोभाश्रव कहते है। १०-१४. ५ अव्रत : प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह, इन पाँचों का अनियम, अत्याग, अव्रत कहलाता है। इन पाँचों क्रियाओं में प्रवृत्त न होने पर भी त्याग - प्रत्याख्यान के अभाव में जीवात्मा में कर्मों का आश्रव अवश्य होता है। १५-१७. ३-योग : मनोयोग, वचनयोग तथा काययोग, ये तीन योग है। मन-वचन काया के शुभाशुभ व्यापार को योग कहते है। इन तीनों योगों और इसके १५ उपभेदों से आत्मा में कर्मों का आश्रव होता है क्योंकि आत्मा जब तक सयोगी है, तब तक आत्म प्रदेश उबलते पानी की तरह चलायमान होते रहते हैं। चलायमान आत्मप्रदेश कर्म अवश्य ग्रहण करते हैं । केवल नाभि स्थान में रहे हुए आठ रुचक प्रदेश अचल होने से कर्म ग्रहण नहीं करते हैं । . १८-४२ पच्चीस क्रियाएँ : उपरोक्त १७ भेद तथा २५ क्रियाएँ, इन कुल ४२ भेदों से आत्मा में कर्मों का आंश्रव होता है। २५ क्रियाओं का वर्णन आगामी गाथात्रिक में है। पच्चीस क्रियाओं का विवेचन गाथा काइय अहिगणिया, पाउसिंया पारितावणी किरिया । पाणाइवायारंभिअ, परिग्गहिआ मायवत्ती अ ॥२२॥ मिच्छादसणवत्ती अपच्चखाणीय दिट्ठि-पुट्ठि अ । पाड्डुच्चिअ सामंतो,-वणीअ नेसत्थि साहत्थी ॥२३॥ आणवणि विआरणिआ, अणभोगा अणवकंख पच्चइआ । अन्ना पओग समुदाण, पिज्ज दोसेरियावहिआ ॥२४॥ अन्वय काइय, अहिगरणिया, पाउसिया, पारितावणी, पाणाइवाय, आरंभिय, परिग्गहिआ अ, मायवत्ती किरिया ॥२२॥ श्री नवतत्त्व प्रकरण ८७
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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