SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की प्राप्ति होती है, उच्चगोत्र कहते हैं। . ३-४. मनुष्यद्विक : अर्थात् मनुष्य गति एवं मनुष्यानुपूर्वी । जो सुखदुःख भोगने योग्य मनुष्य गति को प्राप्त कराये, वह मनुष्यगति है। जिस कर्म के उदय से मनुष्य गति में जन्म लेने वाला जीव आकाश प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार गमन करता हुआ उत्पत्ति स्थान पर पहुँचता है, या मरणकाल के पश्चात् उत्पत्ति स्थल तक पहुँचाने में जो कर्म मदद करता है, उसे मनुष्यानुपूर्वी कहते ५-६. सुरद्विक : इस कर्म के उदय से जीव को देवगति एवं देवानुपूर्वी मिलती है । देवगति व देवानुपूर्वी की व्याख्या उपरोक्तवत् है। ७. पंचेन्द्रिय जाति : पंचेन्द्रिय जाति नाम कर्म के उदय से जीव को स्पर्श, रस, घ्राण, चक्षु तथा श्रोत्र, ये पांच ईन्द्रियाँ पूर्ण स्वस्थ, निर्दोष एवं सम्पूर्ण शक्तियुक्त प्राप्त होती है। ८. औदारिक शरीर : इस कर्म के उदय से जीव को औदारिक वर्गणाओं से बना हुआ अस्थि, मांस, रुधिर आदि सप्तधातुमय विशिष्ट शरीर प्राप्त होता है। यह शरीर मोक्ष प्राप्ति के लिये खास उपयोगी होता है। ९. वैक्रिय शरीर : जिसमें छोटे-बडे, एक-अनेक आदि विविध प्रकार के रूप बनाने की शक्ति हो अर्थात् विकुर्वणा करने वाले शरीर को वैक्रिय शरीर कहते है । देवता व नारकी के वैक्रिय शरीर होता है। १०. आहारक शरीर : आहारक वर्गणाओं से बने हुए शरीर को आहारक शरीर कहते है। प्रमत्त गुण- स्थानवर्ती लब्धिधारी चौदह पूर्वधर मुनि को जब किसी सूक्ष्म शंका का समाधान करने की आवश्यकता होती है अथवा तीर्थंकरों की ऋद्धि देखने की अभिलाषा होती है, तब विशुद्ध पुद्गलों का आहरण - खिंचाव करके एक हाथ अथवा मूंडे हाथ का पूतला आत्मप्रदेशों से व्याप्त कर भगवान के पास भेज कर अपनी शंका समाहित करते है। इसी पूतले के शरीर को आहारक शरीर कहते है। यह शरीर इतना सूक्ष्म होता है कि चर्म चक्षुओं से दिखाई नहीं देता और किसी से अवरुद्ध भी नहीं होता एवं अवरोधक भी नहीं बनता। ११. तैजस शरीर : तैजस वर्गणाओं से बना हुआ तथा शरीर में उष्मा कायम रखने वाला, ग्रहण किये हुए आहार को पचाने वाला, दृष्टि से न दिखायी ----------------------- ७० श्री नवतत्त्व प्रकरण
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy