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________________ स्वरूप का त्याग कर अन्य द्रव्य रूप नहीं होता अर्थात् जीव पुद्गल नहीं होता और पुद्गल जीव नहीं होता । अतः छहों द्रव्य अप्रवेशी है । - षट् - द्रव्य की उपयोगिता : १. धर्मास्तिकाय : अगर धर्मास्तिकाय न हो तो जीव तथा पुद्गल द्रव्य गति नहीं कर सकते। हालांकि यह स्वयं संचालित नहीं करता तथापि उदासीन तथा तटस्थ होकर के जीव व पुद्गल की गति में सहायक बनता है । यह लोकाकाश में ही व्याप्त है अतः जीव केवल लोक में ही गति करता है तथा सिद्ध का जीव लोकान्त या लोकाग्र भाग में जाकर स्थिर हो जाता है। क्योंकि आगे अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं होने से जीव की गति संभव नहीं है। २. अधर्मास्तिकाय: अगर अधर्मास्तिकाय न हो तो जीव और पुद्गल सदाकाल गति ही करते रहे, स्थिर ही न हो । अधर्मास्तिकाय के सहयोग से ही जीव तथा पुद्गल स्थिर रह पाते हैं । धर्म तथा अधर्म, ये दोनों द्रव्य संपूर्ण लोक में व्याप्त है । इन्हीं से लोकालोक की व्यवस्था सुव्यवस्थित है 1 1 ३. आकाशास्तिकाय : अगर आकाशास्तिकाय न हो तो अनंत जीव, अनंत स्कंध, अनंत परमाणु धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, और उनके स्कंध अमुक स्थान में नहीं रह सकते। सभी को अवकाश (स्थान) देने वाला द्रव्य आकाश ही है I G ४. जीवास्तिकाय जीव न हो तो यह जगत जिस रूप में दिखायी दे रहा है, उस रूप में उसका दिखायी ना असंभव है । जीव कर्त्ता होकर के समस्त द्रव्यों पर शासन करता है ५. पुद्गलास्तिकाय: यह द्रव्य अगर जगत में न हो तो संसार में जो कुछ भी दिखायी दे रहा है । वह कुछ भी दिखायी न दे । क्योंकि हमें जो कुछ भी दृष्टिगत हो रहा है, वह पुद्गल ही है । ६. काल : काल द्रव्य जगत में न हो तो प्रत्येक काम जो क्रमवर्ती सम्पन्न हो रहा है, वह नहीं होता । सब कार्य एक साथ करने पडते । इसलिये काल द्रव्य की भी आवश्यकता है । श्री नवतत्त्व प्रकरण ६५
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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