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________________ होता है। ३. चारित्र : जिसके द्वारा अष्ट कर्मों का क्षय हो, जिसके द्वारा प्रशस्त और शुभ आचरण हो, वह चारित्र है । इसके ७ भेद हैं - सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय, यथाख्यात चारित्र, देशविरति चारित्र तथा सर्वविरति चारित्र । इनमें से कोई भी चारित्र अल्पाधिक प्रमाण में प्रत्येक जीव में होता है । चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम या क्षयोपशम से हीनाधिक तथा क्षय से संपूर्ण चारित्र प्रकट होता है। ४. तप : जो आत्मा पर लगे ८ प्रकार के कर्म रूपी कचरे को जलावे, रसादि (रस, अस्थि, मेद, मांस, मज्जा, रक्त और वीर्य) सप्त धातुओं को तपावे, उसे तप कहते है । तप के छह बाह्य और छह आभ्यन्तर कुल बारह भेद हैं । तप मोहनीय और वीर्यान्तराय, इन दोनों कर्मों के क्षयोपशम से अल्पाधिक और क्षय से संपूर्ण प्रकट होता है । तप हीनाधिक रूप से जीवमात्र मे रहता है। ५. वीर्य : आत्मा के योग, उत्साह, बल, पराक्रम, शक्ति आदि को वीर्य कहते है। यह करणवीर्य और लब्धिवीर्य के भेद से २ प्रकार का है। मनवचन-काया के आलंबन से होने वाला वीर्य. करण वीर्य कहलाता है और ज्ञानदर्शनादि के उपयोग में प्रवर्तित होने वाला आत्मा का स्वाभाविक वीर्य लब्धिवीर्य कहलाता है। करणवीर्य सब सयोगी संसारी जीवों को होता है । लब्धिवीर्य वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से समस्त छद्मस्थ जीवों में हीनाधिक होने से असंख्य प्रकार का होता है । केवली तथा सिद्धात्मा के वीर्यान्तराय कर्म का संपूर्ण क्षय होने से अनन्त लब्धि वीर्य प्रकट होता है। ६. उपयोग : जिसके द्वारा ज्ञान और दर्शन गुण की प्रवृत्ति होती है, उसे उपयोग कहते है। यह पांच ज्ञान, तीन अज्ञान और ४ दर्शन के भेद से कुल १२ प्रकार का है। इसमें भी ज्ञान का साकारोपयोग एवं दर्शन का निराकारोपयोग होता है । इसलिये इन साकार-निराकार रूप १२ उपयोगों में से यथासमय एकाधिक उपयोग हीनाधिक प्रमाण में प्रत्येक जीव में अवश्य होता है । संसारी जीवों में पर्याप्ति भेद गाथा आहारसरीरिदिय - पज्जत्ती आणपाण भास मणे । चउ पंच पंच छप्पिय, इगविगलासन्निसन्नीणं ॥६॥ श्री नवतत्त्व प्रकरण
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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