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________________ अन्वय चेयण तस इयरेहिं, वेय-गइ-करण-काएहिं जीवा एगविह दुविह तिविहा चउव्विहा पंचछव्विहा (हुंति) ॥३॥ संस्कृतपदानुवाद एकविध-द्विविध-त्रिविधा, श्चतुर्विधाः पंच षड्विधाः जीवाः । चेतनत्रसेतरैर्वेद-गति-करण-कायैः ॥३॥ शब्दार्थ एगविह - एक प्रकार का दुविह - दो प्रकार का तिविहा - तीन प्रकार का चउव्विहा - चार प्रकार का पंच - पांच प्रकार का छव्विहा - छह प्रकार का जीवा - जीव है चेयण - चेतन्य लक्षण से (एक भेद) , तस इयरेहिं - त्रस तथा इतर अर्थात् स्थावर भेद से (जीव के दो भेद हैं) वेय - वेद के भेद से (जीव के तीन भेद हैं) गइ - गति के भेद से (जीव के चार प्रकार हैं) करण - करण (इन्द्रिय) के भेद से (जीव के पांच प्रकार हैं) काएहिं - काया के भेद से. (जीव के छह प्रकार हैं) र भावार्थ चेतना लक्षण सें, बस और स्थावर के भेद से, वेद के भेद से, गति के भेद से, करण के भेद से एवं काय के भेद से जीव क्रमशः एक प्रकार का, दो प्रकार का, तीन प्रकार का, चार प्रकार का, पांच प्रकार का व छह प्रकार का है ॥३॥ विशेष विवेचन १. चैतन्य लक्षण से एक प्रकार का जीव : इस संसार में अनंतानन्त श्री नवतत्त्व प्रकरण
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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