SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९. मोक्ष - समस्त कर्मों का आत्मा से सर्वथा अलग हो जाना अथवा नष्ट हो जाना, मोक्ष कहलाता है। नवतत्त्वों में हेय-ज्ञेय-उपादेय हेय - त्यागने योग्य । ज्ञेय - जानने योग्य । उपादेय - स्वीकार करने योग्य । १. जीव तथा अजीव तत्त्व ज्ञेय है। २. पुण्य तत्त्व मोक्ष तक पहुँचने के लिये सहायक और मार्गदर्शक है। अतः व्यवहार नय की अपेक्षा से पुण्य उपादेय है परन्तु पुण्य प्रकृति भी शुभकर्मरूप और स्वर्णशृंखला के समान है, अतः मोक्ष प्राप्ति के लिये इसका क्षय भी आवश्यक है। जिस प्रकार मार्गदर्शक को मंजिल प्राप्त होते ही छोड दिया जाता है, उसी प्रकार निश्चय नय से पुण्य तत्त्व भी हेय है। जैसे पुण्य तत्त्व सोने की बेडी है, उसी प्रकार पाप तत्त्व लोहे की बेडी है और बेडी तो बंधन रूप होने से सर्वथा त्याज्य है, अतः पुण्य के साथ पाप तत्त्व भी हेय है। कर्मों का आगमन होने से आश्रव तत्त्व तथा आत्मा को कर्मों से संबद्ध करने के कारण बंध तत्त्व भी हेय है। ३. संवर तथा निर्जरा तत्त्व जीव के स्वभावरूप होने से उपादेय है । पुण्यतत्त्व मोक्ष तक पहुँचने में सहायभूत होने से उपादेय है। जिससे शाश्वत आनंद की उपलब्धि हो जाय, वह मोक्ष तत्त्व सर्वश्रेष्ठ उपादेय है। हेय तत्त्व - (पुण्य) पाप, आश्रव, बंध । ज्ञेय तत्त्व - जीव, अजीव । उपादेय तत्त्व - संवर, निर्जरा, मोक्ष (पुण्य) नवतत्त्वों में रूपी-अरुपी १. यद्यपि निश्चय नय की अपेक्षा से जीव तत्त्व अरूपी ही है परंतु व्यवहारनय की अपेक्षा से जब तक मोक्ष नहीं प्राप्त करता तब तक नानाविध शरीर धारण करने से वह रूपी भी है । -श्री नवतत्व प्रकरण श्री नवतत्त्व प्रकरण
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy