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________________ शब्दार्थ जीवाइ - जीव आदि सम्मत्तं - सम्यक्त्व नव - नौ. भावेण - भाव से पयत्थे - पदार्थों को सद्दहन्तो - श्रद्धा करने वाले जीव को जो - जो अयाणमाणे - अज्ञानवान् होने पर .. जाणइ - जानता है वि - भी तस्स - उसको सम्मत्तं - सम्यक्त्व होइ - होता है (होइ - होता है।) भावार्थ जीव आदि ९ पदार्थों को जो जानता है, उसे सम्यक्त्व होता है। भाव से श्रद्धा करने वाले को अज्ञानवान् (बोधरहित) होने पर भी सम्यक्त्व होता है ॥५१॥ विशेष विवेचन . जीव-अजीव आदि पूर्व विवेचित नवतत्त्वों का सम्यक् स्वरूप ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम द्वारा समझा जाता है और इसे समझने वाले आत्मा को सत्यासत्य व हिताहित का विवेक होता है । वह धर्म-अधर्म, हेय-ज्ञेयउपादेय का ज्ञाता बनता है। इन नवतत्त्वों का गहराई पूर्वक चिंतन-मनन करने से सर्वज्ञ वचनों पर अखंड श्रद्धा उत्पन्न होती है। इस प्रकार अटल श्रद्धा से आत्मा में सम्यक्त्व का दीप प्रज्ज्वलित होता है । यदि किसी जीव के ज्ञानावरणीय कर्म का तीव्र उदय है, जिससे उसे नवतत्त्वादि का ज्ञान नहीं हो पाता तथापि 'तमेव सच्चं निस्संकं, जं जिणेहिं पवेइयं' 'वही सत्य है, जो जिनेश्वर भगवान् ने प्ररुपित किया है' ऐसी दृढ श्रद्धा वाला अज्ञानी जीव भी अवश्यमेव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। । सम्यक्त्व के ५ लिंग अथवा ६७ लक्षण भी है । इनसे भी जीव में सम्यक्त्व का अभाव है या सद्भाव? यह व्यवहार से जाना जा सकता है। निश्चय से तो सर्वज्ञ ही कथन कर सकते हैं। - - श्री नवतत्त्व प्रकरण
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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