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________________ परिहार विसुद्धीअं - परिहारविशुद्धि चारित्र | संपरायं - संपराय चारित्र सुहूमं - सूक्ष्म . |च - और तह - तथा शब्दार्थ (गाथा-३३) तत्तो - उन चारित्रों के बाद जं - जिस (यथाख्यात चारित्र)का अ - और चरिऊण - आचरण करके अहक्खायं - यथाख्यात चारित्र | सुविहिया - सुविहित (भव्य) जीव खायं - प्रख्यात वच्चंति - प्राप्त करते हैं सव्वम्मि - सबमें अयरामरं - अजरामर . जीवलोगम्मि - जीवलोक में, जगत में | ठाणं - स्थान को भावार्थ पहला सामायिक चारित्र, दूसरा छेदोपस्थापनीय चारित्र, तीसरा परिहार विशुद्धि तथा चौथी सूक्ष्मसंपराय चारित्र है ॥३२॥ तथा उन चारित्रों के बाद अन्तिम यथाख्यात अर्थात् सर्व जीवलोक में प्रसिद्ध चारित्र है। इस चारित्र का अनुपालन करके सुविहित जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥३३॥ '' विशेषाविवेचन प्रस्तुत गाथा में संवर के ५७ भेदों में से पाँच चारित्र रूप अंतिम पाँच भेदों का कथन है। इस व्याख्या के साथ संवर तत्त्व की मीमांसा संपूर्ण होगी । ___चारित्र : चय - आठ कर्मों का चय - संचय, उसे रित्त-खाली करने वाले अनुष्ठान का नाम,चारित्र है । यह.५ प्रकार का है - १. सामायिक चारित्र : सामायिक शब्द की व्युत्पत्ति 'सम् + आय् +इकण्' इस प्रकार है । सम अर्थात् समताभावों की, आय् अर्थात् जिसमें वृद्धि हो, वह सामायिक है । इसमें तद्धित का इक प्रत्यय संयुक्त है। राग-द्वेष की विषमता को मिटाकर शत्रु-मित्र के प्रति समताभाव धारण करना, उस भाव से जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र का आय-लाभ होता है, उस विशुद्ध अनुष्ठान को सामायिक चारित्र कहते है। इसका जघन्य काल ४८ मिनिट तथा उत्कृष्ट काल श्री नवतत्त्व प्रकरण १०७
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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