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________________ से मुक्त नहीं होती, तब तक उसका अजीव से संयोग बना रहता है । अजीव से मुक्त होने के लिये उसका अजीव को जानना आवश्यक ही नहीं बल्कि उसकी अनिवार्यता है क्योंकि जिससे मुक्त होना है, उससे मुक्ति आवश्यक क्यों है, यह जानना जरूरी है। इसलिये जीव के साथ अजीव का अध्ययन साधक के लिये अनिवार्य है। प्रस्तुत ग्रंथ इसी द्वैत जीव और अजीव का विस्तार है । अनुजा शिष्या साध्वी नीलांजना की शैशव से ही तत्त्वज्ञान के प्रति विशेषरूचि रही है। उसके जीवन के विविध आयामों, चाहे लेखन हो या प्रवचन या अध्ययन, इन सभी में तत्त्वज्ञान की छाप अवश्य रहती है। ... प्रस्तुत ग्रंथ भी उसी अभिरूचि का परिणाम है । निःसंदेह इस ग्रंथ की अपनी उपयोगिता है। अगर प्रारंभिक स्तर पर कोई जैन तत्त्वज्ञान से संबंधित जानकारी लेना चाहे तो यह ग्रन्थ आसानी से उसकी पूर्ति कर सकता है । यह ग्रन्थ संक्षिप्त तथा विस्तृत, दोनों ही अपेक्षाओं पर खरा उतरता है। साध्वी नीलांजना प्रज्ञासंपन्न एवं जागरूक चेतनायुक्त है। उसकी कोमल एवं मंजी हुई लेखनी ने इस ग्रंथ को जैसे प्राणवान् बना दिया है । परिश्रमपूर्वक तैयार की गयी यह कृति तत्त्वजिज्ञासु पाठकों को स्वाध्याय की प्रेरणा देने के साथ अंतिम मंजिल मोक्ष की प्राप्ति में रूचि पैदा करे, यही इस लेखन की सार्थकता है। साध्वी नीलांजना प्रस्तुत कृति पर ही इतिश्री न करें बल्कि वह साहित्य को और अधिक समृद्ध करती हुई शासन की सफलतम लेखिका एवं श्रेष्ठतम साधिका बने, इसी मंगल भावना के साथ... विram साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभाश्री श्री नवतत्त्व प्रकरण
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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