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________________ गुरुवंदन जाप्य श्रर्थसहित. १८७ प्रत्यें तुरत शीघ्रपणे ( खवंति के० ) पवी नि राकरण करे बे, अर्थात् कय पमाने वे ॥ ४० ॥ अप्पम जवबोहचं, नासियं विवरि यं च जमिह मए ॥ तं सोहंतु गीयता, प्र निनिवेसि मन्चरिणो ॥ ४१ ॥ इति गुरु वंदनकजाप्यं समाप्तम् ॥ अर्थः- वांदणांनो विचार ते ( अप्पम‍ ho) अपने मति जेहनी एवा जे (जब के० ) व्यप्राणी मना (बोरं के० ) बोध ज्ञानने अ ( जासियं के० ) नांख्यो परंतु आवश्यक बृहद्वृत्त्यादिक ग्रंथने विषे एनो अत्यंत विस्तार बे त्यांथी विशेष जोवुं, इहां संपथी कह्यो ठे. मांदे जे अनाजोगे ( विवरिअं के० ) विपरीत पणे ( च के० ) वली (जं के० ) जे ( इह के० ) ए नामां (मए के ) महाराथी कदेवाएं होय ( तं के० ) तेने वली (जिनिवेसि के०) कदाग्रही एटले ग्वादरहित एवा श्रने ( अ मरिलो के ) मत्सरपलाना परिणामें रहित,
SR No.022326
Book TitleChaityavandanadi Bhashya Trayam Balavbodh Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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