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________________ १७५ गुरुवंदन जाय अर्थसहित. पुरन परकासने, गंता चिष्ण निसी अणायम || आलोयण परिसुणणे, पु वालवणे आलोए ॥ ३५ ॥ तह नव दंस निमंतण, खधा यय तहा अपमि सुणे ॥ खवत्तिय त गए, किं तुम त काय नो सुमणे ॥ ३६ ॥ नो सरसि क हचित्ता, परिसंचित्ता प्रणु हवा कहे || संथार पायघण, विठुच्च समासणे या वि ॥ ३७ ॥ दारं ॥ ५१ ॥ अर्थ :- प्रथम गुरूने ( पुरन के० ) ग्रागल चालतां शिष्यने विनयभंगादिक लागे माटे ए कारणें आशातना श्राय परंतु जो मार्गादिकनी विषमता होय अथवा गुरुने मार्ग देखावा माटे जो गुरुथी आगल चालवु परे तो ते अकारणमां गाय नही. वीजी ( परक के० ) गुरुने परुखे बेहु पासे गमन करे गुरुन) बराबर चाले तो प्रा शातना थाय, त्रीजी ( श्रासन्नेगंता के० ) एमज
SR No.022326
Book TitleChaityavandanadi Bhashya Trayam Balavbodh Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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