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________________ हिंदी -भाव सहित ( संसार एक समुद्र है ) । मृत्यूत्पत्तिजरातरङ्गचपले संसारघोगर्णवे । मोहग्राहविदारितास्यविवराद्दरेचरा दुर्लभाः ॥ अर्थः - संसार, एक भयंकर विस्तीर्ण समुद्र के समान है । समुद्रमें खारा जल भरा रहता है जिसको यदि कोई भी पीता है तो उसकी तृप्ति नहीं होती, उलटा दाह बढता है । इसी तरह संसारसमुद्वमें विषयजन्य सुख हैं कि जो क्षणभंगुर होनेसे तथा दुःखपूर्ण होनेसे पीनेब लेकी तृप्ति नहीं करसकते । समुद्रमें जैसे वडवानल अभि जलता रहता है जिससे कि समुद्र भीतरसे निरंतर जलाकरता है और स्थिरता नहीं पडती उसी तरह संसार में मानसिक तीव्र वेदनाएं हैं कि जो निरंतर जाज्वल्यमान रहती हैं जिनसे कि जीवों का अंतःकरण निरंतर जलाकरता है किंतु शांति क्षणभरके लिये भी नहीं मिलती । समुद्र तरंगें निरंतर उठती हैं और विलीन होती हैं; संसारमें भी जन्ममरण - जरारूप तरंगोंकी माला निरंतर उठती ही रहती है जिससे कि एक क्षणभरके लिये भी स्थिरता नहीं होती । इस गति से उसमें, उससे भी और तीसरी गतिमें, इस तरह जीव सदा भ्रमता ही रहता है । समुमें बडे बडे मगर नाके आदि मुख फाडे हुए पड़े रहते हैं कि जो किसी भी जंतुको पास आते ही गिल जाते हैं। इस संसार में भी मोह - रूप मगर नाके आदि भयानक जलचर जीव निरंतर मुख फा हुए पडे रहते हैं; कोई भी पास आया कि झट गिल जाते हैं । रागद्वेषकी उत्पत्ति निरंतर होती ही रहती है जिससे कि सदा अशुभ कर्मों से यह जीव लिप्त होता रहता है । यही मोहग्राहका गिलना है। इस संसार - समुद्र में रहते हुए भी जो इन मोहग्राहोंने बचे रहते हैं वे अत्यंत विरल हैं । इस दुःखसागर पार होते हैं तो वे ही होते हैं । अरे भव्य, तुझे भी इस संसारसमुद्र में रहकर इसी तरह बचना चायिये, तभी तेरा वेढा पार होगा । 1 १० ८७ ॥ ७३
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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