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________________ हिंदी-भाव सहित ( बंधुओंसे दुःख )। ऋणमोचक कहना चाहिये । और इसीलिये उसे अपना उपकर्ता समझना चाहिये । जिसने प्राणघात किया हो उसने शेष रहे हुए आयुको तत्काल ही पूरा कराकर उससे जीवको छुटकारा करादिया इसलिये उसे उपकर्ता न कहा जाय तो क्या कहना चाहिये ? हां, जिन बंधुओंने विवाहादि रागद्वेषवर्धक कार्योंमें फसाया उन्होंने पाप-कर्मरूप नवीन ऋणसे जीवको लिप्त किया इसलिये ये बंधुजन अवश्य पूरे शत्रु हैं। वंधुजन जब कि धनकी मदत करते हैं तो वे सुखके कारण हुए, दुःखके कारण कैसे हो सकते हैं ? इस भ्रमको हटाते हैं:-- रे धनेन्धनसंभारं प्रक्षिप्याशाहुताशने । ज्वलन्तं मन्यते भ्रान्तः शान्तं संधुक्षणे क्षणे ॥ ४५ ॥ अर्थः-अरे मूर्ख, बहुतसा ईंधन डालकर आप ही अमिको इधर उधरसे खूब चेताकर उसके बीचमें पडकर जलना कोन पसंद करेगा ? और यदि इस तरह अपने ही हाथसे ईश्न पडकर अमि चेत गया हो तथा उसमें फसकर आप स्वयं जलने लगा हो तो भी उस समय अपनेको सुखी कोन मानेगा ? यदि उस समय भी जो सुखी समझरहा हो तो उसके बराबर दूसरा मूर्ख कोन होगा ? कहना चाहिये कि वह पूरा पागल है । इसी तरह जिसने बंधुजनोंकी प्रेरणासे अपनी आशारूप अनिमें धनरूप ईंधन डालकर उसे खूब प्रदीप्त करलिया हो और उसके बीचमें फसकर आप ही जलने लगा हो, तो भी अज्ञानवश समझता हो कि मैं खूब सुखी होगया, तो उसके बराबर कोन दूसरा मूर्ख होगा ? जब कि धनके बढनेसे तृष्णा, चिंता बढ़ती है तो वह सुखी कैसे कहा जा सकता है । जब कि तृष्णा, चिंता आदि दुःखोंका कारण होनेसे धन सर्वथा दुःखका ही कारण है तो उसके संग्रह करनेमें जो बंधुजन सहायी होते हैं वे सच्चे हितकर्ता बंधु कैसे कहे जा सकते हैं ? सच्चा बंधु तो वही है कि जो तृष्णाके कारणभूत धनसे तृष्णा हटवाकर संतोष तथा स्वाधीन अध्यात्म सुखमें लगावै ।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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