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________________ हिंदी-भाव सहित ( साधुओंके गुण )। ५५ होगा ? भावार्थ, ऐसे विरले हैं परंतु सच्चे साधु वे ही हैं । जो अपनेको साधु बताकर लोगोंको ठगते हैं वे साधु न समझने चाहिये। विरतिरतुला शास्त्रे चिन्ता तथा करुणा परा, मतिरपि सदैकान्तध्वान्तप्रपञ्चविभेदिनी । अनशनतपश्चर्या चान्ते यथोक्तविधानतो, भवति महतां नाल्पस्येदं फलं तपसो विधेः ॥ ६८ ॥ अर्थः--उन महात्मा साधुओंकी हम कहांतक प्रशंसा करें कि जिनमें संसारसे वैराग्य ओतप्रोत सदा भरा ही रहता है, निरंतर जो शास्त्रोंका ही चिंतन करनेवाले हैं, जिनका मन सदा करुणासे पूरित रहता है-जीवोंका कल्याण किस तरह हो, जीव सांसारिक दुःखोंसे कब और कैसे मुक्त हों यही विचार जिनके अंतःकरणमें सदा जारी रहता है, जिनका ज्ञान, एकान्त दुराग्रह अथवा विपरीत ज्ञानरूप सघन अंधकारका नाश करता है, मरण-समय जो समाधि धारण करते हैं. अर्थात् भोजनादि बाह्य सामग्रीको त्याग तथा भीतरी रागद्वेषको कृष करके जो शास्त्रानुसार आत्माके स्वरूप चिंतनमें लीन होते हैं । ऐसी परिणति होना यह छोटे मोठे तपश्चरणका फल नहीं है । ऐसी परिणति महापुषोंकी ही हो सकती है । दीन पुरुष ऐसी आत्मोन्नति कहांसे कर सकते हैं ? जो कि थोडेसे विघ्नसे ही चलायमान हो जाते हैं उनसे वह सर्वोकृष्ट तपकी आराधना कैसे हो सकती है ? एवं जो कि निरंतर विषयवासनामें लीन रहते हैं, शास्त्राभ्याससे पराङ्मुख रहते हैं जिनके चित्तमें करुणाका नाम भी नहीं है, एकान्त विपरीत श्रद्धाको जिन्होंने अपने अन्तःकरणमें स्थान देरकरवा है, मरते मरते भी जिनसे भोजनादि विषयवासना छूटती नहीं है ऐसे दीन जन क्या ऐसी आत्मोन्ननि कर सकते हैं ? कभी नहीं । संसारवर्ती जीव भी कुछ थोडीसी धर्मवासना पाकर अपनी परिणतिको सुधारते हैं; अनन्तानुबंधी तीव्र कषायोंका उपशम तथा क्षय. करके विषयवासनाको कृष करते हैं, तथा एकदेश वृत
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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