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________________ हिंदी-भाव सहित ( संसारकी असारता )। किं मोहाहिमहाबिलेन सदृशा देहेन गेहेन वा, . देहिन् याहि सुखाय ते समममुं मा गाः प्रमादं मुधा ॥११॥ अर्थ:-अरे मित्र, जैसे सूखा ईंधन पडनेसे आग्नि बहुत ही जा. ज्वल्यमान होता है उसी प्रकार आशारूप अमिको प्रज्वलित करनेमें धन, ईधनका काम देता है । जब कि धनसे दुःखका कारण असंतोष बढता है तो वह किस कामका है? उससे सुख कैसे मिलसकता है ? जो निरंतर अशुभ कृत्यमें भिडाने बाले तथा अशुभ कर्मका बंध जिनके योगसे होता हो ऐसे संबंधी तथा बन्धु-जनोंका संबन्ध भी किस कामका है ? मोहरूप सर्पके बडे भारी बिलसमान इस देहसे तथा गेहसे भी क्या प्रयोजन है कि जिसमें प्रवेश करनेसे मोहरूप सर्प अवश्य डसले, और फिर उसके विषका फल नरक निगोदादि खोटी गतियोंमें पडकर अनंत कालतक भोगना पडै । अरे जीव, तू निश्चय समझ, ये सर्व दुःखके ही कारण हैं । इसीलिये तू इनमें वृथा फसै मत-इनमें राग द्वेष मत कर । किंतु इन पर वस्तुओंमेंसे राग द्वेष दूर करके समता धारण कर; तभी तुझै सुख प्राप्त होगा। सारांश, जीवके सुखका कारण सब अवस्थाओंमें संतोष, समता ही है; और जहां जहां राग द्वेषका प्रादुर्भाव है वहीं वहीं दुःख है । लक्ष्मीकी अस्थिरताःआदावेव महाबलैरविचलं पट्टेन बद्धा स्वयं, रक्षाध्यक्षभुजासिपञ्जरवृता सामन्तसंरक्षिता। लक्ष्मीर्दीपशिखोपमा क्षितिमतां हा पश्यतां नश्यति, प्रायः पातितचामरानिलहतेवान्यत्र काऽऽशा नृणाम् ॥१२॥ अर्थः-पहले भी चक्रवर्ती आदि राजाओंने महाबली वीर पुरुषोंके मस्तकपर पट्ट बांधकर इस लक्ष्मीको पट्टबंधके बहानेसे रोकना चाहा, रक्षाधिकारी पुरुषोंको रखकर उनकी भुजाओंमें पड़ी हुई जो तलवारें वे ही हुए पीजडे, उनमें रोककर रखना चाहा, बडे बडे सामन्तों के द्वारा उसकी रक्षा कराई, परंतु वह क्या रुक सकती है ? शिरके
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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