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________________ हिंदी-भाव सहित ( देहकी पराधीनता)। ..शरीर एक जेलखाना है । देखोःअस्थिस्थूलतुलाकलापघटितं नद्धं शिरास्नायुभि-, धर्माच्छादितमस्रसान्द्रपिशितैर्लिनं सुगुप्तं खलैः । कारातिभिरायुरुचनिगलालग्नं शरीरालयं, कारागारमवेहि ते हतमते प्रीतिं वृथा मा कृथाः ॥ ५९॥ अर्थः-अरे मूर्ख, तू इस शरीरमें वृथा क्यों आसक्त हो रहा है ? इस शरीरको तू केवल जेलखाना समझ । जेलखाना बडे बडे पत्थर सैतीर वगैरह लगकर बनता है, यह शरीर हड्डियोंसे बना हुआ है। जेलखाना लोह पत्थर आदिके परकोटेसे घिरा हुआ होता है, यह शरीर शिरा स्नायुओंसे जकडा हुआ है । जेलखाना भी, कैदी लोग कहींसे निकल न जाय इसके लिये सब तरफसे ढका हुआ होता है, यह शरीर भी चमडेसे ढका हुआ है । जेलखानेमें जहां तहां कैदियों के आघातसे रुधिर मांस दृष्टिगोचर होता है परंतु शरीरके भीतर सभी जगह वह भरा हुआ है । कैदी कहीं भाग न जाय इसकेलिये जेलखानेके आसपास, जेलके स्वामीकी तरफसे दुष्ट क्रूर मनुष्य पहरा दिया करते हैं, इसी प्रकार इस शरीरमें भी दुष्ट कर्मशत्रुओंका पहरा लगा रहता है । जेलखानेमें जगह जगह दरबाजोंके बीचमें अर्गलकी लकड़ी लगी रहती हैं कि जिससे कैदी बाहिर न निकल जांय, यहांपर जीवरूप कैदीको रोकनेकेलिले आयूरूप मजबूत अर्गल लगा रहता है। जबतक आयु-अर्गल हटता नहीं है तबतक जीवरूप कैदी शरीरमेंसे बाहिर नहीं निकल सकता है । जब कि ऐसा है तो शरीर और जेलखानेमें क्या अंतर है ? कुछ भी नहीं। अरे,जेलखानेसे तो तू इतना डरता है कि, दिन दो दिन वहां रहना भी तुझै कष्ट जान पडता है; और तू निरंतर विचार करता होगा कि इस कष्टसे कब छूटूंगा, अथवा उसमें कभी भी जाना न पडै । परंतु इस शरीर-जेलका तो यह हाल है कि एकसे छुटकारा हो तो दूसरेमें चलाजाना पडता है, दूसरेसे निकला तो तीसरेमें घुसना पडता
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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