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________________ हिंदी-भाव सहित ( विषयोंमें सुख नहीं )। ४३ यौवनका सर्व सौन्दर्य विलीन हो जाता है, कमर बल जाती है, अनेक रोग आकर घेर लेते हैं, भूख घट जाती है। परंतु तृष्णा जहां बढ जाती है । तू यह भी याद रख कि यहां तू अनादिका नहीं है जिससे कि अपना नाश होना असंभवसा समझ रहा हो । किंतु यहां भी कहींसे आकर ही उत्पन्न हुआ है । इसलिये यहांसे भी तुझे जाना पडेगा । ऐसी अवस्थामें भी तू आत्मकल्याणसे पराङ्मुख क्यों हो रहा है ? क्यों उन्मत्त बन रहा है ? क्यों तेरी वासनाएं अहित कर्मसे हटती नहीं हैं ? विषयमें फसनेवालेको आपातमात्र भी सुख नहीं होता । देखोःउग्रग्रीष्मकठोरधर्मकिरणस्फूर्जगभस्तिपभैः, संतप्तः सकलेन्द्रियैरयमहो संवृद्धतृष्णो जनः। . अप्राप्याभिमतं विवेकविमुखः पापप्रयासाकुल,स्तोयोपान्तदुरन्तकर्दमगतक्षीणोक्षवत् क्लिश्यते ॥५५॥ अर्थः-जैसे कोई बूढा असमर्थ बैल पानी पीनेकी इच्छासे जलके पास जाकर वहांके लंबे चौडे दलदलमें यदि फस जाय तो वह बाहिर निकलने की चाहें जितनी खटपट करनेका श्रम उठावै परंतु क्या बाहिर फिर निकल सकता है ? नहीं । उलटा श्रम करनेसे खिन्न होगा और ऊपरसे सूर्यके जो तीक्ष्ण किरण पडेंगे उनसे अत्यंत दुःकित होगा अंतको उसी में मर जायगा । इसी प्रकार जीव भी बढी हुई विषयतृष्णाके वश होकर सूर्यकिरणोंके समान कठोर तथा संतापकारी संपूर्ण इंद्रियोंसे तप्तायमान होता हुआ जब अनेक तरहके अनवरत उपाय करके भी पूर्ण अभीष्टको नहीं पाता है तब पापके उदयवश तथा अनेक श्रम करनेके कारण अत्यंत खिन्न होता है । इसका कारण केवल यह है कि, उसको असली सुखोपायका और अपना अभीतक भान ही नहीं हुआ है कि, मैं कौन हू, और असली सुख कैसे मिल सकता है ? अज्ञानीकी दशा सभी जगह ऐसी ही होती है। ---
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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