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________________ हिंदी-भाव सहित ( भोगोंकी निस्सारता)। ३९ समुद्रमें जा न पडा हो तबतक यदि अपनी सुध सँभालकर कुछ प्रयत्न करै तो उससे निकल सकता है। नहीं तो उसके वेगमें वहता वहता जब कि समुद्रमें जा पड़ा तो फिर वहांसे क्या निकलना होता है ? वहां तो अवश्य किसी विकगल ग्राहके मुखमें पडकर मरण ही पावेगा । इसी प्रकार एक संसारी जीव, जिसने कि चिरकालसे दुःखदायक योनियों में भ्रमण करते करते मनुष्य पर्याय पालिया है; जहां कि चाहे जितना अपने कल्याणार्थ उद्योग किया जा सकता है; यदि वह कुछ न करै तो निगोदादि गतियोंमें पडकर फिर चिरकालतक वहां ही दुःख भोगते रहेगा; जहां कि अपने सुधारका कुछ भी उद्योग नहीं हो सकता है । इसीलिये फिर वहांसे निकलना अपने स्वाधीन नहीं रहता । इसलिये जो कुछ कल्याण सिद्ध करना हो वह अभी इस पर्यायमें ही करलेना चाहिये। विषयभोग झूठन है, इसलिये उनमें आसक्ति करने का निषेधः-- आस्वाद्याद्य यदुज्झितं विषयिभिावृत्तकौतूहलैस्तद् भूयोप्यविकुत्सयन्नभिलपत्यप्राप्तपूर्व यथा । जन्तो किं तव शान्तिरस्ति न भवान् यावद्दुराशामिमामंहःसंहतिवीरवैरिपृतनाश्रीवैजयन्ती हरेत् ।। ५० ॥ __ अर्थः--अरे जीव, विषयासक्त मनुष्योंने बडी उत्कंठाके साथ जिनको अनेक वार भोगा और निस्सार समझकर पीछेसे छोड दिया, झूठनकी कुछ भी ग्लानि न करके उन्हींको तू आज ऐसे प्रेमके साथ भोगरहा है कि जैसे ये विषय पहले कभी मिले ही न हो । यद्यपि इन भोगोंको इच्छा पूर्ण होनेके लिये चाहें तू कितने ही वार क्यों न भोग; परंतु तबतक क्या शांति उत्पन्न हो सकती है ? जबतक कि अपराधरूप प्रबल अनेक शत्रुओंके सैन्यकी विजयपताकाके समान जो यह विषयाशा ( असंतोष ), इसे गिरा नहीं देगा। अर्थात्, जैसे शत्रु राजाओंका परस्पर जब संग्राम होने लगता है तब एक दूसरे की विजयपताका गिरादेनेके लिये दोनों ही अनेक प्रयत्न करते हैं । और जबतक एककी
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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