SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ आत्मानुशासन. दुःखका नाम भी न हो । ज्ञान तो गृहस्थको पूर्ण हो ही नहीं सकता है; क्योंकि, जिस तपश्चर्याके द्वारा ज्ञानविघातक कर्मका सर्वथा नाश होनेसे पूर्ण ज्ञान मिलता है, वह तपश्चर्या घरमें रहनेसे पूरी सधती नहीं । ज्ञानाभ्यासादि द्वारा जो कुछ ज्ञान प्राप्त होता है वह भी अनेक आकुलतावश स्थिर नहीं रह सकता है । इसलिये ज्ञानका प्राप्त होना भी असली साधु-अवस्थामें ही हो सकता है । अत एव गृहस्थके तुच्छ ज्ञानको ज्ञानमें न मानते हुए ही यह कहा है कि, ज्ञान वही है जहांपर कुछ भी विच्छेद तथा अज्ञान न हो । गृहस्थ-धर्मसे परभवकी गति अधिकसे अधिक स्वर्गतक मिल सकती है। परंतु वहांसे फिर भी दूसरी गतियोंमें जाना पडता है । इसलिये वह गति भी सर्वोत्कृष्ट नहीं है । साधुपदसे मुक्तितक प्राप्त होसकती है; जहांसे कि फिर कभी लौटना नहीं पड़ता। इसलिये वही गति प्राप्त करने योग्य है । इसी भावको लेकर ग्रन्थकार कहते हैं कि गति वही असली है कि जहां फिर भी बापिस जानेका डर न रहता हो । इसलिये यदि पूरा हित सिद्ध करनेकी इच्छा है तो घरमें रहकर धन कमाकर विषयभोगोंको भोगकर अपनेको सुखी समझना भूल है । सुख, घरके जंजालको छोडनेसे ही मिल सकेगा। विषयसुखकी अपेक्षा मोक्षसुखका मिलना सुलभ है। देखोः वार्तादिभिर्विषयलोलविचारशून्यः, क्लिश्नासि यन्मुहुरिहार्थपरिग्रहार्थम् । तच्चेष्टितं यदि सकृत् परलोकबुद्धया, न प्राप्यते ननु पुनर्जननादि दुःखम् ॥ ४७॥ अर्थः-अरे, जैसा कि तू असि मसि कृषि आदि अनेक तरहके उद्योग करता हुआ निरंतर इस विषयसुखकी प्राप्तिकेलिये क्लेश उठाता है, वैसा क्लेश यदि एकवार भी परलोकसिद्धि के लिये उठावै तो फिर तुझै जन्ममरणादिक दुःख कभी भोगने ही न पड़ें। अर्थात् अविनाशी सुखकी प्राप्ति होजाय । परंतु तू एक तो विषयोंमें आसक्त हो रहा है और दूसरे,
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy