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________________ प्रस्तावना. ५. प्रतिबुद्ध करना है वहां इष्ट उपदेशका प्रवेश करानेकेलिये समर्थनरूप उन कथाओं का संग्रह करदिया है । वे कथा सुनते हुए भी मनुष्य केवल प्रकृत विषयको ही हृदयगत करते हैं और कथाओंको आनुषंगिक समझकर छोडदेते हैं । इसलिये ऐसे उल्लेखों का यहां दुरुपयोग होना संभव नहीं है। प्रत्युत, ऐसी उक्तियोंसे ग्रंथका उपयोग अधिक होता है । भावार्थ:- जो जिस तरह समझ सकता है उसे उसी तरह से समझाने का इसमें प्रयत्न किया है । उदाहरणार्थ, एक ५३ वां श्लोक लीजिये, जो लोग नरकादि परोक्ष विषयोंपर श्रद्धा नहीं रखते उनके साथ यह हठ नहीं किया है कि तुझें वे बातें माननी ही पडेगी । किंतु उनकेलिये ग्रंथकार यह कहते हैं कि अच्छा वे बातें जाने दो, तो भी वर्तमान दुःख देखकर तो तुझें संसार से विरक्त होना चाहिये । 1 ' तोयेः पान्त दुरन्तकदम गतक्षीणोक्षवत् क्लिश्यते । ५५ । ' इत्यादि हृदयद्रावक वाक्योंकी तो इस ग्रंथ में भरमार है । कविका वैद्यकज्ञान: 'कुटीप्रवेशो विशुद्धकायमिव ? यह वाक्य १०८ वें श्लोकका है । वैद्यकमें शरीर पूर्ण शुद्ध करनेकी उत्तम से उत्तम क्रियाका जो है उसका यह नामोल्लेख है । इसका सारांश वैद्यक जाने विना नहीं समझमें आसकता है । " कवित्वशक्तिः : शलाटु - ११५ वें श्लोकका, गोपुच्छ - २५७ वें श्लोकका, इस्यादि शब्द कहीं कहीं पर ऐसे आजाते हैं कि साहित्य के अच्छे ज्ञान विना समझमें नहीं आते। एवं ९२४ वें श्लोक में सूर्यके एक ही रागसे -विरोधी दो परिणामों का उल्लेख करना यह दिखाता है कि जुदी जुदी वस्तुओंके साथ लगाकर एक ही चीज को विवित्रता से दिखाना कविको अच्छी तरह आता था । "
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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