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________________ हिंदी-भाव सहित ( भागोंकी निस्सारता)। ३१ कि शीघ्र ही दीखते दीखते अदृश्य हो जाय तो, उस समय जिसने वे लड्डू लेरक्खे थे उसकी तरफ लोग हसने लगते हैं। इसी प्रकार जिन विषयोंको पाकर तू मग्न होरहा है वे विषय सदा तेरे पास रहनेवाले नहीं हैं । देखते देखते किसी दिन चपलाकी तरह विलीन हो जायगे । पाप कर्मका उदय यदि वीचमें ही आगया तो मरनेसे पहले ही वे विषय नष्ट हो जायगे । और तेरे चाहते हुए भी हाथसे निकल जाने पर लोग तेरी हसी करेंगे । इसलिये तू अपनी हसी आप ही क्यों कराता है ? अथवा जिस तरह मनुष्य माटी वगैरहके तयार हुए नकली लड्डूको भी दूरसे देखकर तो उसे लेना चाहता है, पर हाथमें आते ही समझ जाता है कि इसमें कुछ सार नहीं। तब छोडते देख लोग हसते हैं। इसी प्रकार तू; जबतक प्राप्त नहीं हुए तभीतक भोगोंको चाहता है । पर पाने पर निस्सार दीखेंगे और तू उन्हें छोडना चाहेंगा; तब लोग तुझै देख, हसेंगे। इसलिये पहले ही उन्हें छोड । भोगकर छोडने बालोंकी होड मत कर । बहुतोंका विचार ऐसा होता है कि गृहाश्रममें रहकर भी हम धर्म साधन करके अपना कल्याण कर सकते हैं। पर, गृहाश्रममें पूर्ण कल्याण होनहीं सकती । देखो:सर्व धर्ममयं कचित् कचिदपि प्रायेण पापात्मकं, काप्यतद् द्वयवत्करोति चरितं प्रज्ञाधनानामपि । तस्मादेष तदन्धरज्जुवलनं स्नानं गजस्याथवा, मत्तोन्मत्तविचेष्टितं नहि हितो गेहाश्रमः सर्वथा ॥ ४१ ॥ अर्थः--बुद्धिमान् मनुष्योंके चरित्रको भी यह गृहाश्रम कभी तो धर्ममय कर देता है, जबकि सामायिक आदि क्रिया की जाती हैं; कभी, अर्थात् स्त्रीसंभोगादिके करनेमें केवल पापमय ही सर्व चेष्टा कर देता है: और कहींपर, जब कि जिनपूजनादि किये जाते हैं तब जीवके चरित्रको पापपुण्यसे मिला हुआ करदेता है । ये सब चेष्टाएं ऐसी होती हैं, जैसी कि किसी पागल आदमी की उन्मादभरी हुई चेष्टाएं हों । अथवा जैसे
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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