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________________ हिंदी-भाव सहित ( धर्मसंग्रहकी सुगमता)। १७ धर्मसे पराङ्मुख होकर विषयासक्त होनेबालेकी निंदाः कृत्वा धर्मविघात विषयसुखान्यनुभवान्त ये मोहात् । आच्छिद्य तरून्मूलात फलानि गृह्णान्ति ते पापाः ॥ २४ ॥ अर्थः-अज्ञान तथा तीत्र रागद्वेषके वश होकर, जो धर्मकी रक्षा न करते हुए और नवीन धर्मका विघात करते हुए पूर्वसंचित धर्मके फलोंको भोगते हैं वे पापी मानो उत्तम फलके देनेबाले वृक्षोंको जडसे काटकर उन वृक्षोंके फलको भोगनेवाले हैं । अर्थात्, जैसे उत्तम फल देनेवाले वृक्षोंकी रक्षा करते हुए उनसे जो फल लेकर भोगते रहते हैं वे तो बुद्विमान् सज्जन धर्मात्मा हैं, किंतु जो तीव्र उन्मादके वश अथवा तीव्र तृष्णाके वश होकर जडसे काटकर उन वृक्षोंके फल लेना चाहते हैं वे मूर्ख अविवेकी अधम पापी हैं । इसी प्रकार जो विषयों का सेवन इसतरह करता है कि जिसकी प्रवृतिसे धर्मका उच्छेद होकर पाप संचय हो वह पापी मूर्ख समझना चाहिये; क्योंकि उसका उसने समूल नाश करके उससे एकवार प्राप्त होनेवाले फलोंको भोगकर आगामी सदाके लिये वह धर्मवृक्ष नष्ट करादिया । विषयसेवन और धर्माराधनका एक साथ होसकना :___ कर्तृत्वहेतुकर्तृत्वानुमतैः स्मरणचरणवचनेषु । यः सर्वथाभिगम्यः स कथं धर्मो न संग्राह्यः॥ २५॥ अर्थः-जो धर्म मानसिक चिंतवनद्वारा शारीरिक चर्याद्वारा, वचन द्वारा खयं करनेसे, दूसरोंको करानेसे अथवा अनुमोदना करनेसे एवं हर तरहसे संचित होसकता है उस धर्मका क्यों न संग्रह करना चाहिये ? भावार्थ-कृत, कारित, अनुमतिरूप ऐसे प्रत्येक मन वचन तथा कायकी प्रवृत्ति तीन तीन प्रकारकी होसकती है; इसलिये जीवोंकी, मन वचन काय की प्रवृति मूल नौ प्रकारकी कही जासकती है। जीवकी कोई भी प्रवृत्ति क्यों न हो किंतु सबका समावेश इन नौ भेदोंके भीतर ही होजाता है । इन प्रवृत्तियोंमेंसे अथवा उत्तर भेरों से जीवकी कोई न
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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