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________________ हिंदी -भाव सहित ( चारित्र ) । १५ नवीन पुण्य कर्मका बंध होनेसे आगे भी सुखकी प्राप्ति होना संभव होता है । इंद्रियसुख के लिये भी धर्मकी आवश्यकताः - धर्मारामतरूणां फलानि सर्वेन्द्रियार्थसौख्यानि । संरक्ष्य ताँस्ततस्तान्युच्चिनु यैस्तैरुपायैस्त्वम् ॥ १९ ॥ अर्थः- संपूर्ण इंद्रियों के इष्ट विषय संबंधी जो सुख हैं उन सबको सम्यक्त्वादि-अनेक-वृक्षयुक्त धर्मरूप बागके फल समझना चाहिये । इस लिये तू सम्यक्त्व -- संयमादिरूप वृक्षोंकी जिस तिस प्रकारसे रक्षा करके विषयफलोंको भोग । अर्थात्, बुद्धिमान् मनुष्य जिस प्रकार श्रेष्ट फल देनेवाले वृक्षोंको जडसे उखाडकर उनके फल नहीं खाते किंतु उन वृक्षों को कायम रखकर उनसे फल लेते हैं, इसी प्रकार विषयरूप फलोंकी उत्पत्ति भी धर्मरूप वृक्षों से ही हो सकती है; इसलिये उस अनेक प्रकारके धर्मकी रक्षा करके विषयोंको भोगना चाहिये, न कि धर्मकी जड काटकर | धर्मसे विषयसुखका भंग नहीं होगा । क्यों ?धर्मः सुखस्य हेतुर्हेतुर्न विरोधकः स्वकार्यस्य । तस्मात् सुखभङ्गभिया मा भूर्धर्मस्य विमुखस्त्वम् ||२०| अर्थः- धर्म से सुखकी उत्पत्ति होती है । इसलिये जब कि, धर्म सुखका हेतु सिद्ध हो चुका, तो हेतु कभी भी अपने कार्यका घातक - कारण नहीं हो सकता किंतु सदा अपने कार्यका कहीं प्रत्यक्ष कहीं परोक्षरूपसे साधक ही होगा । इसलिये तू इस बातको विचार कर धर्मसे विमुख मत हो कि, धर्म धारण करनेसे मेरे विषय - सुखोंमे बाधा आपडेगी । धर्मादवाप्तविभवो धर्म प्रतिपाल्य भोगमनुभवतु । वीजादवाप्तधान्यः कृषीवलस्तस्य वीजमिव ॥ २१ ॥ अर्थ:-सुख संपत्ति आदि विभवकी प्राप्ति धर्मद्वारा हुई है इस लिये धर्मरूप प्रधान कारणकी रक्षा करते हुए ही तुझे भोग भोगने
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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