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________________ हिंदी -भाव सहित ( चारित्र ) .१३ अथवा, पाषाणको धारण करनेपर भी मनुष्यका जिस प्रकार कुछ आदर नहीं होता, उसको देखकर भी लोग उसे श्रीमंत या सुकृती नहीं कहते किंतु रत्न धारण करनेवालेको देखकर लोग उसे बहुत बडा श्रीमंत, पुण्यशाली समझते हैं । उसी प्रकार केवल शम, बोध, वृत्त, तप धारण करनेपर भी मनुष्य सत्कारपात्र नहीं होपाता, किंतु, सम्यक्त्व के धारण करलेनेसे वही मनुष्य पूज्य होजाता है । इसीलिये सम्यक्त्व सब गुणों से अधिक आदरणीय है । दुराराध्य मानकर धर्मसे डरनेवाले के लिये आश्वासन:मिथ्यात्वातङ्कवतो हिताहितपाप्त्यनाप्तिमुग्धस्य । बालस्येव तवेयं सुकुमारैव क्रिया क्रियते ॥ १६ ॥ अर्थ :- रोगी होकर भी हिताहितकी अनुकूल प्रवृत्तिको न समझनेबाला, अत एव रोगनाशके अचूक परंतु दुःसह उपायको करने केलिये असमर्थ या अनुत्साही ऐसा जो बालक उसकेलिये वैद्य जिस प्रकार सहजसी कोई रोगनाशक औषधि बताता है इसी प्रकार मिया - त्वरूप संसार- दुःखवर्धक रोगसे पीडित होनेपर भी जबतक तू सच्चे हितको साधने और अहितको दूर करने के लिये पूर्ण साहसी नहीं हुआ है तबतक हम तेरेलिये बहुत ही सहज उपाय बताते हैं, तू डर मत । वह सहज उपाय अणुत्रतरूप चारित्र आराधना :विषयविषप्राशनोत्थितमोहज्वरजनिततीव्रतृष्णस्य । निःशक्तिकस्य भवतः प्रायः पेापक्रमः श्रेयान् ॥ १७ ॥ अर्थ :- विष आदि विपरीतवस्तु के खानेसे जब संताप - ज्वर वढजाता है और उसके योगसे तृषा बढजाती है तथा शक्ति घटजाती है तब जिस प्रकार सहज पचने योग्य पीनेकी चीजें ही प्रथम देकर शक्ति बढाई जाती है और तृषा कम कीजाती है; उसके बाद फिर कठिन गुरुतर औषधियों का सेवन कराया जाता है। उसी प्रकार विषय
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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