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________________ २५० जाता है । अथवा, वीर शब्दका अर्थ गणितसंकेतके अनुसार चौवीस संख्या होता है; क्योंकि वकारसे चारकी संख्या तथा रेफसे दोकी संख्या गणितमें लीगई है। अंकोंका लिखना उलटी बाजूसे होता है; इसलिये मिलनेपर चार दो का अर्थ चौवीस हो जाता है । इस प्रकार इसी वीर शब्दसे चौवीसो तीर्थकरोंको भी नमस्कार होजाता है । विशिष्ट लक्ष्मीकी प्राप्ति शास्त्रद्वारा भी होती है। इसलिये विशिष्ट लक्ष्मीका दाता ऐसा विशेषण शास्त्रका मानलेनेपर शास्त्रको भी नमस्कार इस शब्दसे हो जाता है । इस प्रकार देव गुरु शास्त्र तीनोको ही नमस्कार करना इस श्लोकसे सिद्ध हो जाता है। लक्ष्मीनिवासनिलय तथा विलीनविलय ये दोनों विशेषण देव, गुरु, शास्त्रमेंसे प्रत्येकके होसकते हैं और इसीलिये ये तीनो संसारभरके भन्य सभी देवादिकोंसे अधिक उत्कृष्ट हैं ऐसा सूचित होता है । - संसारसे दुःखित हुए भव्योंको मुक्तिसुखकी प्राप्ति कराना ही इस ग्रंथके बनानेका प्रयोजन कहा है । इससे सिद्ध होता है कि इसे बनाकर ग्रंथकर्ताको अपने लोभ मान आदिकी पुष्टि करना या अपनी विद्याका घमंड दिखाना इष्ट नहीं था । जो लोभादिके वशीभूत होकर • ऐसा कार्य करते हैं, उनसे असत्य अहितकारी उपदेश भी कदाचित् हो जाता है। पर इस ग्रंथका हेतु ऐसा नहीं है, किंतु जीवोंके सच्चे सुखका मार्ग इसमें बताया गया है। इसीलिये यह जीवोंको परम हितकर्ता तथा ग्राय है ऐसा सिद्ध होता है। जिससे सच्चे आत्मस्वरूपका उपदेश मिलसकता हो वह आत्मानुशासन होसकता है । इस ग्रंथका नाम भी आत्मानुशासन है इसलिये इस नामपरसे संबंध, अभिधेय, शक्यानुष्ठान ये तीनो विषय स्पष्ट मालूम होसकते हैं । और इष्ट प्रयोजनको ग्रंथकारने 'वक्ष्ये मोक्षाय भव्यानाम् ' इस वाक्यसे अलग भी दिखादिया है।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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