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________________ हिंदी-भाव सहित (अंतिम वक्तव्य )। २०५ विषयसंपत्ति न रहकर भी मुक्तिमें सुख कैसा ! - स्वाधीन्याहःखमप्यासीत् सुखं यदि तपस्विनाम् । स्वाधीनसुखसंपन्ना न सिद्धाः सुखिनः कथम् ॥ २६७ ॥ अर्थः-तपस्वियोंको अनेक दुःख रहकर भी स्वाधीनताका संकल्पमात्र होजानेसे सुख ही सुख अनुभवगोचर होने लगता है । तो फिर जिनको शरीरके बन्धनसे तथा ज्ञानादि गुणोंके विधातसे एवं इन्द्रिय विषयों के अभावसे पद-पद पर होनेवाले संसारदशाके दुःख, जब कि सर्वथा उपाधियां हट जानेसे छूट गये हों तब उन्हें क्यों न अपूर्व सुख या आनंद प्राप्त होगा? यदि स्वाधीनताकी सीमा तथा इच्छा-द्वेष का अत्यंत अभाव जिन्हें प्राप्त हो चुका है उन्हें भी सुखी न माना जाय तो सच्चा सुखी कौन दूसरा होगा? यह शाश्वतिक तथा अकथनीय आनंद प्राप्त होना विषयोंसे विमुख होकर तपश्चरण व आत्मध्यान करनेका फल है। ग्रन्थकारका अन्तिम उपसंहार व आशीर्वादःइति कतिपयवाचां गोचरीकृत्य कृत्यं, चरितमुचितमुच्चैश्वेतसां चित्तरम्यम् । इदमविकलमन्तः संततं चिन्तयन्तः, सपदि विपदपेतामाश्रयन्तुं श्रियं ते ॥२६८ ॥ अर्थः-श्रीगुणभद्र स्वामी कहते हैं कि इस ग्रंथमें संक्षेपसे उत्तमसे उत्तम व निर्दोष आत्माको उपदेश या उसके शुद्ध होनेका उपाय दिखाया है। इसका जो मनन करेंगे उन्हें असली आत्मसिद्धि प्राप्त होगी। देखोः इस प्रकार थोडेसे वाक्य बनाकर उन वाक्योंमें यह पवित्र विषय मैंने गूंथा है। इस ग्रंथमें संसारसे मुक्त होनेवाले योगीश्वरोंका कर्तव्य व ध्येय विषय इकट्ठा किया गया है। इसीलिये मोक्षके उपायोंमें लगे १-' माश्रयन्ते ' इति वा पाय । २ ये चिन्तयन्ति ते ।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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