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________________ हिंदी-भाव सहित (मुक्तिका स्वरूप )। - २४३ . यह नहीं मालूम होता कि ऐसा निर्वाण मानकर जीव उसमें क्यों प्रवृत्त होंगे ? अरे भाई, जहां मूलका ही उच्छेद हो जाता है बहांसे तो यह संसार ही भला है, जहां कि समल ही क्यों न हो परंतु मूल तो कायम रहता है । अत एवः___अजातोऽनश्वरोऽमृतः कर्ता भोक्ता सुखी बुधः। । देहमात्रो मलैर्मुक्तो गत्वोर्ध्वमचल स्थितः ॥ २६६ ॥ अर्थः-जीवका स्वभाव द्रव्यदृष्टया अनादिमुक्त होनेसे जन्ममरणसे शून्य है। अवथा मुक्त हो जानेपर संसारके जन्म-मरण होना बंद होजाता है। इसलिये भी शुद्ध जीव अजन्मा तथा अमर मानना चाहिये । रूपरसादि गुणवाले पिण्डोंको मुर्तिक कहते हैं। जीवमें ऐसे गुण नहीं हैं। इसलिये वह बाह्य इंद्रियोंके गोचर नहीं होता और अत एव अमूर्तिक माना जाता है। कर्मबंधनके रहनेसे संसारदशामें वह औपचारिक मूर्तिक भी कहा जासकता है। परंतु शुद्ध जीव औपचारिक मूर्ति भी धारण नहीं करता । संसारके स्वभावोंकी अपेक्षासे जीव कर्मोंका कर्ता है। किंतु शुद्ध मूल व वास्तविक निजी स्वभावोंकी तरफ देखनेसे उन्ही अपने स्वभावोंका कर्ता कहा जासकता है, न कि कर्मोंका । ठीक . ही है, कर्मोंके बंधका कारण विकारी दशा है, जो कि कर्म व जीवके संबंधविशेषसे उत्पन्न होती है। उस दशाको न तो ठीक जीवसंबंधी ही कह सकते हैं और न कर्मसंबंधी ही कह सकते हैं। दोनोंके ही मूल स्वभावोंसे जुदी वह तीसरी एक दशा है। इसीलिये कर्मबंधके कर्तृत्वका अपराधी जीवको बताना ठीक नहीं है। जिसका जो कर्ता होता है उसीका, और वही, भोक्ता भी होता है । इसलिये जीव व्यवहारदृष्टिसे कर्मफलोंका भोक्ता है और स्वाभाविक गुणोंकी तरफ देखनेसे वह उन्ही स्वाभाविक चैतन्यादि गुणोंका भोक्ता है। जीवका स्वभाव सुखी व ज्ञानमय भी है । जीवका परिमाण प्रदेशोंकी गिनतीसे तो असंख्यात प्रदेशका है। किंतु लंबाई चौडाई व उंचाईमें यथासमय प्राप्त
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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